संदेश

पर्यावरण की चिंता के साथ दीपावली मुबारक

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इस दिवाली पर ब्लॉग एक्शन डे वालों ने इस दिन को पता नहीं जानबूझकर या अनजाने में पर्यावरण (Enviornment) से जोड़ दिया है। यानी इन दो दिनों में हम लोग पर्यावरण को लेकर संकल्प लें। यह संदेश इतने जोर-शोर से पहुंचाना है कि इस सिलसिले में दुनिया के तमाम देशों की जो बैठक हो रही है, उसमें ब्लॉगर्स (Bloggers) का भी एक प्रेशर ग्रुप (Pressure Group) मौजूद रहे। आप मेरे ब्लॉग की दाईं तरफ ऊपर की ओर जो चीज देख रहे हैं वही ब्लॉग एक्शन डे (Blog Action Day) का निशान और लिंक है। मैं और मेरे जैसे तमाम लोग इस महती कार्य में शामिल हैं लेकिन मैंने जानबूझकर भाषा के रूप में हिंदी का चयन किया, हालांकि वहां अंग्रेजी वालों का बोलबाला है। बहरहाल, यह तो हुई उनकी कहानी लेकिन इस दिवाली पर मैं महसूस कर रहा हूं कि लोग काफी जागरुक हो गए हैं या कहिए महंगाई और मंदी (Recession) का भी असर है कि तीन दिन पहले पटाखे फोड़ने के नाम पर होने वाला शोरशराबा इस बार नहीं के बराबर है। लेकिन हम लोगों का यह त्योहार रोशनी, संपन्नता का है तो बिना पटाखे फोड़े बिना मनाने की सलाह मैं नहीं देने वाला। यह तमाम पूंजीवादी देशों (Capitalist Countries

अशांति फैलाओ और नोबल पुरस्कार पाओ

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अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा को नोबल पुरस्कार की खबर कुछ भारतीय अखबारों के लिए लीड थी तो दूसरी तरफ कुछ अमेरिकी अखबारों में यह छप रहा था कि क्या यह आदमी नोबल पुरस्कार का हकदार है। राष्ट्रपति की कुर्सी संभाले इस आदमी को चंद महीने ही हुए हैं और किस आधार पर इसे नोबल पुरस्कार वालों ने शांति का मसीहा मान लिया। हालांकि कुछ भारतीय अखबारों ने सवाल उठाया कि क्या महात्मा गांधी इस पुरस्कार के हकदार नहीं थे जिन्होंने अहिंसा के बल पर अपने आंदोलन को कामयाब बनाया। लेकिन गांधी जी को इस पुरस्कार के देने में एक नियम आड़े आ गया...कि नोबल पुरस्कार कमिटी सिर्फ उन्हीं लोगों को इसके लिए चुनती है जो जिंदा हैं। यानी जो मर चुके हैं उनके कार्यों का मूल्यांकन संभव नहीं है। यह अजीबोगरीब नियम हैं और दुनिया में जितने भी पुरस्कार दिए जाते हैं उनमें इस तरह के नियम नहीं आड़े आते। लेकिन हम लोग क्या कर सकते हैं...पूंजीवादी देश अपनी शर्तों पर कर्ज देते हैं और अपनी ही शर्तों पर पुरस्कार भी देते हैं। नोबल के लिए यह जरूरी है कि आपका जुड़ाव अमेरिका या यूरोप की किसी यूनिवर्सिटी या संस्था से जरूर हो नहीं तो आपके काम को म

प्यार करें या न करें

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प्यार करें या न करें (टु लव आर नॉट टु लव )...विलियम शेक्सपियर ने जब इस लाइन का इस्तेमाल अपने एक उपन्यास में किया था तो उन्हें भी शायद यह उम्मीद नहीं रही होगी कि कई सौ साल बाद दुनिया में इस पर बहस शुरू हो जाएगी। प्यार की नई परिभाषाएं गढ़ी जाएंगी और साइबर लव व कैंपस लव जैसे शब्दों का इस्तेमाल हम लोग करने लगेंगे। अगर आप गूगल में ही अंग्रेजी के इस मुहावरे को तलाशने लगें तो चौकें बिना नहीं रहेंगे कि भाई लोगों ने इस मुहावरे पर कितनी सारी सामग्री को गूगलमय कर दिया है। पर यह सब अंग्रेजी में है। हिंदी में तो सारे ही कामदेव के अवतार हैं और उन्होंने एक कामशास्त्र क्या गढ़ लिया है...उसी को अल्टीमेट रामबाण औषधि मानने लगे हैं। ...आप बहके और चौंके नहीं...कि आखिर मैं यह क्या विषय लेकर बैठ गया...जहां राजनीति पर बहस होती हो,जहां सामाजिक सरोकारों पर बहस होती हो, वहां यह क्या विषय आ गया। पर मित्रों, इस विषय पर भी बात करना बहुत जरूरी है। हुआ यह है कि पाकिस्तान की सबसे प्रतिष्ठित लाहौर यूनिवर्सिटी (Lahore University) में एक छात्रा ने यूनिवर्सिटी के आंतरिक ईमेल सिस्टम (इन्ट्रानेट) के जरिए सभी स्टूडेंट्स, प्र

राहुल तोड़ दो इस सिस्टम को

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राहुल गांधी के बारे में आपकी क्या राय है...शायद यही कि वह मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए हैं और एक ऐसे खानदान से हैं, जिसके अनुकूल सारी परिस्थितियां हैं। उनकी मॉम देश की सत्ता को नेपथ्य से चला रही हैं। उनके आसपास जो कोटरी है वह राहुल को स्थापित करने में जुटी हुई हैं। पर, जनाब अगर आपकी दिलचस्पी भारतीय राजनीति में जरा भी है तो अपनी राय बदलिए। यह कोई जबर्दस्ती नहीं है लेकिन हां, कल आप अपनी राय जरूर बदलेंगे। भारतीय राजनीति ( Indian Politics ) में होने जा रहे इस बदलाव का मैं चश्मदीद गवाह हूं। इन लम्हों के लिए मैं खुद को सौभाग्यशाली मानता हूं। जब मैंने पत्रकारिता शुरू की थी तो स्व. राजेंद्र माथुर सीख देते थे कि अगर भारत में पत्रकारिता करनी है तो भारत-पाकिस्तान बंटवारे से लेकर इंदिरा गांधी शासनकाल तक के घटनाक्रम को गहराई और बारीकी से जानना और समझना जरूरी है।...और आज जबकि भारतीय राजनीति में नेहरू के बाद स्टेट्समैन ( Statesman ) का खिताब पाने वाले अटलबिहारी वाजपेयी सीन से हट चुके हैं, आडवाणी की विदाई नजदीक है, मनमोहन सिंह की अंतिम पारी चल रही है और ऐसे में देश की दो महत्वपूर्ण पार्टियों

मेरे जूते की आवाज सुनो

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इराक के पत्रकार मुंतजर अल-जैदी ने अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश पर जब पिछले साल जूता फेंका था तो पूरी दुनिया में इस बात पर बहस हुई कि क्या किसी पत्रकार को इस तरह की हरकत करनी चाहिए। उसके बाद ऐसी ही एक घटना भारत में भी हुई। यह बहस बढ़ती चली गई। बुश पर जूता फेंकने वाले इराकी पत्रकार अभी हाल ही में जेल से छूटे हैं। जेल से छूटने के बाद यह पहला लेख उन्होंने लिखा, जिसे हिंदी में पहली बार किसी ब्लॉग पर प्रकाशित किया जा रहा है। उम्मीद है कि इस लेख से और नई बहस की शुरुआत होगी... मैंने बुश पर जूता क्यों फेंका -मुंतजर अल-जैदी अनुवाद – यूसुफ किरमानी मैं कोई हीरो (Hero) नहीं हूं। मैंने निर्दोष इराकियों का कत्ले-आम और उनकी पीड़ा को सामने से देखा है। आज मैं आजाद हूं लेकिन मेरा देश अब भी युद्ध के आगोश में कैद है। जिस आदमी ने बुश पर जूता फेंका, उसके बारे में तमाम बातें की जा रही हैं और कही जा रही हैं, कोई उसे हीरो बता रहा है तो कोई उसके एक्शन के बारे में बात कर रहा है और इसे एक तरह के विरोध का प्रतीक मान लिया गया है। लेकिन मैं इन सारी बातों का बहुत आसान सा जवाब देना चाहता हूं और बताना चाहता हूं

आर्थिक मंदी में ईद मुबारक

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इस कविता के जरिए मैं आप सभी को तमाम किंतु-परंतु के साथ ईद, नवरात्र और विजय दशमी की मुबारकबाद देना चाहता हूं। आर्थिक मंदी के इस दौर में महंगाई और बेरोजगारी के अंधकार में पेशेवर पत्रकारिता के बाजारवाद में कुछ रंगे सियारों से संघर्ष के फेर में मुट्ठी भर आतंकवादियों की हरकतों के बीच में भगवा ब्रिगेड की विष वमन की पॉलिटिक्स में मोदी मार्का जिनोसाइड के खेल में पर, प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग से निजात में और हां, अमेरिकी कुटिल चालों के जाल में मासूम फिलिस्तीनी बच्चों की सिसकारी में और कुल मिलाकर मैडम सोनिया व मनमोहन की सदारत में आपको ईद मुबारक हो

मां की कहानी...कुछ कहना है उनका

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मां मुझे भी एक कहानी सुनाओ ...पर एनजीओ उदय फाउंडेशन ने कुछ ऐतराज उठाया है। हालांकि उन्होंने यह ऐतराज फोन पर किया है और लिखकर संक्षेप में जो भेजा है उसमें यह नहीं बताया कि दरअसल उन्हें ऐतराज किस बात पर है। पहले तो उनका पत्र पढ़ें जो उन्होंने लिखा है और नीचे उससे जुड़े लिंक भी देखें... Dear Sir It is really shocking that how come a senior journalist like you can write some thing without going through the correct facts. It doest matter that it was published any paper or not . What really matter is hurting a sentiments of grass roots workers like us. As u asked today to sent you any news item where govt hospital details are being mentioned. Warm Regards Rahul Verma Founder The Uday Foundation पहली बात यह बता दूं कि वह लेख उदय फाउंडेशन (Uday Foundation) के खिलाफ नहीं था। उसमें मैंने एक मुद्दा उठाया था कि आखिर क्यों तमाम एनजीओ (NGO) प्राइवेट अस्पतालों में ही अपनी सारी गतिविधियां चलाते हैं। उन्हें सरकारी अस्पताल क्यों नहीं दिखाई पड़ते, जहां आम आदमी सबसे ज्यादा पहुंचता है। कुल मिलाकर यही मुद्द