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एक रुका हुआ फैसला...किसकी कामयाबी

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सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद और रामजन्म भूमि विवाद में हाई कोर्ट का फैसला 24 सितंबर को सुनाए जाने पर रोक लगा दी है। यह आदेश आज (बृहस्पतिवार) ही आया है और जो भी सुन रहा है वह यही कह रहा है कि सुप्रीम कोर्ट को ऐसा नहीं करना चाहिए था। हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगवाने की जो कोशिश रमेश चंद्र त्रिपाठी नामक शख्स कर रहा था वह उसमें सफल हो गया। यही कोशिश उस आदमी ने हाई कोर्ट में की थी जिसमें उसे कामयाबी नहीं मिली थी। अयोध्या विवाद इतने लंबे समय से पेंडिग है कि इससे जुड़ा कोई भी मसला आने पर देश में उत्तेजना का माहौल बन जाता है। इस बार उम्मीद बंधी थी कि अब हाई कोर्ट का फैसला साफ-साफ आएगा और जिसे मानना होगा मानेगा, जिसे नहीं मानना होगा वह आगे सुप्रीम कोर्ट में अपील कर देगा। सुप्रीम कोर्ट ने एक हफ्ते बाद इसकी सुनवाई का आदेश आज सुनाया है। अगर एक हफ्ते बाद सुप्रीम कोर्ट हाई कोर्ट से कहता है कि वह अब फैसला सुना दे तो यह और भी घातक होगा क्योंकि अब दशहरा आने वाला है और जल्द ही रामलीलाओं का मंचन शुरू हो जाएगा। ऐसे में अगर फैसला आता है तो किसी भी एक पक्ष के लिए मुफीद नहीं है। इस मसले को शुरू से ही लटका क

अयोध्याः तथ्य और इतिहास कैसे बदलोगे

बाबरी मस्जिद – रामजन्मभूमि टाइटल पर अदालत का फैसला आने में अब महज कुछ घंटे बचे हैं। तमाम तरह के सांप्रदायिक, कट्टरपंथी और लंपट किस्म के लोग सक्रिय हो गए हैं। माहौल में उत्तेजना का एहसास कराने की कोशिश तमाम तरह के लोग कर रहे हैं। अयोध्या का फैसला जो भी आए लेकिन उसके संदर्भ में जो बयान और बातें अब तक कही गई हैं, उनके मद्देनजर लोग अपना फैसला अदालत के फैसले के बाद देना शुरू कर देंगे। यह तय है। इस मुकदमे में 1949 से पक्षकार हाशिम अंसारी अयोध्या के रहने वाले हैं और उन्होंने यहां सब कुछ अपनी आंखों के सामने देखा है। उनकी उम्र इस वक्त 91-92 साल है। एक साल पहले उन्होंने एक टु सर्कल डॉट नेट को हिंदी में दिए गए इंटरव्यू में बहुत कुछ कहा था। वह बातें आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं। इंटरव्यू सुनकर लगता है कि अभी यह बात जैसे उन्होंने आज ही कही है। इस मुद्दे पर मैं अपनी ओर से कोई टिप्पणी न करते हुए हाशिम अंसारी का वह विडियो और उसके नीचे सुप्रसिद्ध मुस्लिम बुद्धिजीवी असगर अली इंजीनियर के भाषण का एक अंश दे रहा हूं जिसमें उन्होंने कहा है कि कैसे सांझी विरासत वाले इस देश को तोड़ने की कोशिश की जाती रही है। उन

पाकिस्तान को चांद चाहिए

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अब मुस्लिम त्योहारों को लेकर भी प्राय: मतभेद उजागर होने लगे हैं। इस बार भारत में दो दिन ईद मनाई गई। पाकिस्तान में तो पिछले कई सालों से ऐसा हो रहा है। वहां कई त्योहार राजनेताओं और धर्मगुरुओं के लिए मूंछ की लड़ाई बन गए हैं। इस बार वहां अचानक ईद के चांद पर बहस शुरू हो गई। इसमें सरकारी तौर पर भी बयानबाजी और बहस अब तक जारी है। इस विवाद का सिलसिला रमजान का चांद देखने के समय 11 अगस्त से शुरू हो गया था। सऊदी अरब में 11 अगस्त को पहला रोजा था। पाकिस्तान के खैबर पख्तून और पेशावर इलाके में लोगों ने सऊदी अरब का अनुसरण करते हुए उस दिन पहला रोजा रख लिया। इस पहल में उस सूबे की सरकार भी शामिल रही। इससे उलट चांद देखे जाने पर मुहर लगाने वाली पाकिस्तान की सबसे सुप्रीम बॉडी रुयते हिलाल कमिटी ने 11 अगस्त को चांद देखे जाने की घोषणा की और 12 अगस्त को पहला रोजा घोषित किया। पाकिस्तान के अधिकांश इलाकों में इसी पर अमल हुआ। भारत में भी पहला रोजा 12 अगस्त को ही रखा गया था। लेकिन पाकिस्तान में रुयते हिलाल कमिटी की घोषणा के बाद विवाद शुरू हो गया। इसका क्लाइमैक्स 11 सितंबर को दिखाई पड़ा। एक बार फिर खैबर पख्तून और पेशा

वह सपनों में भी बोलती हैं हिंदी

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उनका नाम है मार्ग्ड ट्रम्पर, जन्म ब्रिटिश-इटली परिवार में हुआ, जिसमें विद्वानों और भाषा विज्ञानियों की भरमार है। इस परिवार का हर कोई किसी न किसी भाषा या संस्कृति से जुड़ा हुआ है। मार्ग्ड ने खुद हिंदी आनर्स की डिग्री वेनिस यूनिवर्सिटी से हासिल की है और वह अब खुद मिलान यूनिवर्सिटी में हिंदी टीचर हैं। हिंदी के अलावा उनका दूसरा प्यार भारतीय संगीत और तीसरा प्यार मेंहदी (हिना) है। बनारस घराने की वह फैन है। वह खुद भी ठुमरी गाती हैं। उन्होंने पद्मभूषण श्रीमती गिरिजा देवी, सुनंदा शर्मा से काफी कुछ सीखा है। इसके अलावा प्रसिद्ध बांसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया, पंडित राजन-साजन मिश्रा, पंडित ऋत्विक सान्याल और बीरेश्वर गौतम से टिप्स हासिल किए हैं। इटली में हिंदी से जुड़ी हर गतिविधि में वह आगे-आगे रहती हैं। इटली में तो लोग उन्हें भारत का सांस्कृति दूत तक कहते हैं। मार्ग्ड के बारे में यह संक्षिप्त सी जानकारी है, पूरा बायोडेटा लंबा है। मैंने मार्ग्ड ट्रम्पर से उनके हिंदी प्रेम पर बात की हैः हिंदी से लगाव कब हुआ ? वैसे यह कहना मुश्किल है कि हिंदी से मेरा लगाव कब हुआ क्योंकि इसमें कई संयोग जुड़े हुए

ऐसे आंदोलनों का दबना अब मुश्किल

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भारत जब अपनी आजादी की जब 63वीं वर्षगांठ मना रहा था और लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह किसानों के लिए लंबी-चौड़ी बातें कर रहे थे तो ठीक उसी वक्त अलीगढ़-मथुरा मार्ग पर पुलिस ही पुलिस थी। यह सडक ठहर गई थी। सड़क के दोनों तरफ बसे गांवों के किसानों और उनके परिवार के लोगों को बाहर निकलने की मनाही थी। जो निकला, उसे पीटा गया और गिरफ्तार कर लिया गया। यह सब किसी अंग्रेजी पुलिस ने नहीं बल्कि देश की पुलिस फोर्स ने किया। यहां के किसानों ने गलती यह की थी कि इन्होंने सरकार से उनकी जमीन का ज्यादा मुआवजा मांगने की गलती कर दी थी। आंदोलन कोई नया नहीं था और महीनों से चल रहा था लेकिन पुलिस वालों की नासमझी से 14 अगस्त की शाम को हालात बिगड़े और जिसने इस पूरी बेल्ट को झुलसा दिया। यह सब बातें आप अखबारों में पढ़ चुके होंगे और टीवी पर देख चुके होंगे। अपनी जमीन के लिए मुआवजे की ज्यादा मांग का आंदोलन कोई नया नहीं है। इस आंदोलन को कभी लालगढ़ में वहां के खेतिहर लोग वामपंथियों के खिलाफ लड़ते हैं तो कभी बिहार के भूमिहीन लोग सामंतों के खिलाफ लड़ते हैं तो हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अपेक्षाकृत संपन्

किसने उठाया भगत सिंह की शहादत का फायदा...जरा याद करो कुर्बानी

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जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में सेंटर ऑफ इंडियन लैंग्वेजेज के चेयरपर्सन प्रोफेसर चमनलाल ने शहीद-ए-आजम भगत सिंह के जीवन और विचारों को प्रस्तुत करने में अहम भूमिका निभाई है। वह भारत की आजादी में क्रांतिकारी आंदोलन की भूमिका को बेहद महत्वपूर्ण मानते हैं और उसे व्यापक सामाजिक-आर्थिक बदलाव से जोड़कर देखते हैं। प्रो. चमनलाल से बातचीत जब भी स्वाधीनता आंदोलन की बात होती है, इसके नेताओं के रूप में गांधी, नेहरू और पटेल को ज्यादा याद किया जाता है। भगत सिंह और उनके साथियों के प्रति श्रद्धा के बावजूद उन्हें पूरा श्रेय नहीं दिया जाता। ऐसा क्यों? गांधी, नेहरू आदि नेताओं का जो भी योगदान रहा हो, लेकिन भगत सिंह के आंदोलन और बाद में उनके शहीद होने से ही आजादी को लेकर लोगों में जागृति फैली। इसका फायदा कांग्रेस और मुस्लिम लीग जैसी पार्टियों ने उठा लिया। कुछ दक्षिणपंथी संगठन भी अपने आप को आजादी के आंदोलन में शामिल बताने लगे हैं। वे खुद को पटेल से जोडऩे की कोशिश में लगे हैं। लेकिन कुछ इतिहासकार भगत सिंह के संघर्ष को असफल करार देते हैं। वे कहते हैं कि भारत के सामाजिक- आर्थिक हालात उनके पक्ष में न

क्या भारत में एक और गदर (1857) मुमकिन है

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महमूद फारुकी तब चर्चा में आए थे जब विलियम डेल रेम्पेल की किताब द लास्ट मुगल आई थी। लेकिन इस वक्त यह शख्स दो खास वजहों से चर्चा में है, एक तो उनकी फिल्म फिल्म पीपली लाइव आने वाली है दूसरा उनकी किताब बीसीज्ड वायसेज फ्रॉम दिल्ली 1857 पेंग्विन से छपकर बाजार में आ चुकी है। 1857 की क्रांति में दिल्ली के बाशिंदों की भूमिका और उनकी तकलीफों को बयान करने वाली यह किताब कई मायने में अद्भभुद है। महमूद फारूकी ने मुझसे इस किताब को लेकर बातचीत की है...यह इंटरव्यू नवभारत टाइम्स में 7 अगस्त 2010 को प्रकाशित हो चुका है। इसे वहां से साभार सहित लिया जा रहा है... इसे महज इतिहास की किताब कहें या दस्तावेज इसे दस्तावेज कहना ही ठीक होगा। यह ऐसा दस्तावेज है जो लोगों की अपनी जबान में था। मैंने उसे एक जगह कलमबंद करके पेश कर दिया है। लेकिन अगर उसे जिल्द के अंदर इतिहास की एक किताब मानते हैं तो हमें कोई ऐतराज नहीं है। आपने इसमें क्या बताया है यह 1857 में दिल्ली के आम लोगों की दास्तान है। अंग्रेजों ने शहर का जब घेराब कर लिया तो उस वक्त दिल्ली के बाशिंदों पर क्या गुजरी। यह किताब दरअसल यही बताती है। इतिहास में 1857 की क