शिया - सुन्नी विवाद नहीं...ये है वहाबी आतंकवाद
यह हैरानी की बात है कि तमाम आधुनिक टेक्नॉलजी से लैस अमेरिका और उसके ग्रुप के साथी देशों को आईएसआईएस (इस्लामिक स्टेट इन इराक एंड द लेवांत) जैसे कट्टर आतंकवादी संगठन के बारे में वक्त रहते पता नहीचला। जिसने अचानक पूरे विश्व समुदाय को चुनौती दे दी है औऱ उसकी आंच भारत तक पहुंच चुकी है। आइए जानते हैं कि अल-कायदा या वहाबी आतंकवाद का चोला पहने आईएसआईएस कैसे अचानक इतना खतरनाक हो गया।
पहले नजरन्दाज किया
सीरिया में गृह युद्ध खत्म हुए अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं। सीरिया का संकट जब शुरू हुआ तो सबसे पहले ईरान और खुद सीरिया ने खासतौर पर अमेरिका और उसके साथी देशों को चेताया कि वे सीरिया में गृहयुद्ध भड़का रहे अलकायदा के ही आतंकवादियों का ग्रुप है। सभी ने इस चेतावनी को नजरन्दाज करते रहे औऱ सीरिया को कथित रूप से आजाद कराने के लिए वहां के आतंकी संगठनों की मदद करते रहे। बीच में यूएन ने भी चेतावनी जारी कि सीरिया के आंतकी गुटों को मदद नहीं मिलनी चाहिए। गृहयुद्ध से परेशान होकर सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद ने अमेरिका से हाथ मिलाना पड़ा। अगले दिन सीरिया में गृह युद्ध थमता नजर आया। लेकिन जिन आतंकी संगठनों को इंसानी खून मुंह लग चुका था, वो कहां चुप बैठते। उन्होंने एक नई मुहिम शुरू की वो सीरिया औऱ इराक के कुछ हिस्सों को मिलाकर अपना आईएसआईएस स्टेट बनाएंगे और फिर निकल पड़े। इस पर कभी बात नहीं की जाती कि मिडिल ईस्ट के संकट पर सऊदी अरब की क्या भूमिका रहती है और क्या उसमें अमेरिका की भी सहमति भी होती है।
शिया-सुन्नी नहीं वहाबी आतंकवाद
अमेरिकी मीडिया ने आईएसआईएस संकट सामने आने के बाद इसे फौरन शिया-सुन्नी संघर्ष का रूप दे दिया और पूरी दुनिया का मीडिया इसे शिया-सुन्नी संघर्ष ही मानकर चल रहा है। लेकिन इस तथ्य को भुला दिया जाता है कि इस आतंकवाद की जड़ वो वहाबी आतंकवाद है, जिसकी पैदाइश अलकायदा के रूप में सबसे पहले सऊदी अरब में हुई। जिसने ओसामा बिन लादेन से लेकर अबू बकर अल बगदादी तक की मंजिल बिना सऊदी अरब की मदद के तय नहीं की है। भारत और पाकिस्तान में इसे वहाबी आतंकवाद के नाम से जाना जाता है, जो कभी लश्कर-ए-तैबा, कभी जैश-ए-मोहम्मद, कभी तहरीक-ए-तालिबान, कभी अल-कायदा, कभी अहले हदीस, कभी लश्कर-ए-झंगवी के नाम से सामने आता है। अब आईएसआईएस के नाम से सामने है, जो वास्तव में वहाबी विचारधारा को फैलाने के मकसद से बनाया गया है। इसे मात्र शिया विरोधी राजनीतिक गुट कहकर मान्यता नहीं दी जा सकती। ये एक चाल है जो बाद में इसे फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष जैसी मान्यता दी जा सके। आईएसआईएस हर उस देश और धर्म के खिलाफ हैं जो अमन और लोकतंत्र चाहते हैं। हालांकि जहां इन्हें पाला-पोसा जाता है, वहां खुद लोकतंत्र नहीं है। सऊदी अरब इसका सबसे बड़े उदाहरण है। इनके निशाने पर शिया देश या समुदाय इसलिए हैं कि शिया देश या समुदाय सबसे पहले इनके विरोध में उठ खड़े होते हैं। यह सदियों पुराना सिलसिला है जो चल रहा है। एक ही धर्म के दो फिरके जब लड़ते हैं तो बाकी लोगों को कहने का मौका मिलता है। इसलिए ऐसे संगठनों का सपना है कि सबसे पहले आबादी और देश के हिसाब से सबसे कम संख्या वाले लोगों यानी शिया आबादी को कुचल डालो फिर पूरी दुनिया में इस्लाम फैलता चला जाएगा। लेकिन इस राह में सबसे पहले शिया रोड़े के रूप में आ जाते हैं और वहाबियों की जंग वहां से आगे नहीं बढ़ पाती। लेकिन इस बार आईएसआईएस जिस खतरनाक रूप में सामने आया है वह गंभीर चिंता का विषय उन तमाम देशों के लिए है जिनके नागरिक मिडिल ईस्ट में तमाम वजहों से गए हुए हैं या जिनके व्यापारिक हित जुड़े हुए हैं।
वहाबी और सुन्नी में मोटा फर्क ये है कि भारत-पाकिस्तान औऱ विश्व के किसी भी कोने में किसी महापुरुष की दरगाहें या रौजे हैं, वहाबी लोग न उनको मानते हैं और न वहां जाते हैं। जैसे भारत में अजमेरशरीफ दरगाह, हजरत निजामुद्दीन औलिया, किछौछा शरीफ, देवा शरीफ (बाबा बुल्ले शाह) या पाकिस्तान में बाबा फरीद की दरगाह या बीबी पाक दामन की दरगाह पर वहाबी लोग जाने के खिलाफ हैं। लेकिन बहुसंख्यक सुन्नी लोग ठीक उसी तरह जाते हैं, जैसे अन्य धर्मों के लोग इन दरगाहों पर जाते हैं। वहाबी आतंकी संगठन तो बाबा फरीद की दरगाह में विस्फोट तक कर चुके हैं। वहाबी सूफी विचारधार के भी सख्त खिलाफ हैं और उनके यहां उसका कोई स्थान नहीं है। इसी तरह करबला ही नहीं विश्व में जितने भी शिया दरगाहें या रौजे हैं, वहाबी उसके भी खिलाफ हैं लेकिन सुन्नी औऱ अन्य समुदायों के लोग वहां जाते हैं। इस विरोध की ऐतिहासिक वजहें और उसे बताने के लिए यह लेख बहुत लंबा हो जाएगा। लेकिन किसी धर्म का कोई फिरका जब आतंकवाद को गले लगा ले तो समाज और पूरी दुनिया को आगाह करना बहुत जरूरी है। पश्चिमी देशों का मीडिया औऱ वहां की सरकारें इसे अपने व्यापारिक हितों के हिसाब से बताती हैं और बढ़ावा देती हैं। बीबीसी की एक रिपोर्ट बताती है कि आईएसआईएस को अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने अलकायदा की तरह ही सीरिया में गृहयुद्ध भड़काने के लिए तैयार किया था लेकिन वही गुट अब बैकफायर कर गया। यह ठीक उसी तरह हुआ जिस तरह सीआईए ने ओसामा बिन लादेन को तैयार किया और बाद में वह अमेरिका के खिलाफ हो गया लेकिन तब तक अमेरिका लादेन के जरिए अपना मकसद यानी अफगानिस्तान में रूस की फौज को भगाने के रूप में कर चुका था। यही वजह है कि मिडिल ईस्ट या खाड़ी देशों की पॉलिटिक्स को अमेरिका ने आज जिस मोड़ पर ला खड़ा किया है, उससे तमाम अमन पसंद मुल्कों के लिए खतरा पैदा हो गया। इस आग में हर कोई झुलस सकता है। इसलिए मौजूदा संकट को शिया-सु्न्नी नजरिए से देखने की हिमाकत नहीं की जानी चाहिए।
क्या चाहता है आईएसआईएस
-यह संगठन इराक और सीरिया में वहाबी या तालिबानी हुकूमत चाहता है, क्योंकि ये देश शिया बाहुल्य हैं और वहां उन्हीं की हुकूमत है। मुख्य मकसद है ईरान की पॉलिटिक्स को चुनौती देना।
-दुनिया के नक्शे पर इराक औऱ सीरिया की बसावट बहुत रणनीतिक है जो अमेरिका ही नहीं आईएसआईएस को भी मुफीद लगती है। अगर इन दोनों देशों पर कब्जा हो जाता है तो फिर ईरान, इजिप्ट दूर नहीं हैं।
-आईएसआईएस ऐसी स्थिति चाहता है कि नक्शे पर फिलिस्तीन जैसा कोई छोटा सा स्टेट उभर आए जहां तालिबानी या वहाबी हुकूमत कायम की जा सके।
-ईरान इन सारे आतंकी संगठनों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। ईरान ने खुद भी अल कायदा के हमले झेले और उसे वहां कुचलने में कामयाबी पाई है। आईएसआईएस स्टेट बनने के बाद ईरान के लिए आसानी से मुश्किलें पैदा की जा सकती हैं।
-सीरिया गृहयुद्ध झेल चुका है, उसे अपेक्षाकृत दबाना आसान होगा और अबू बकर अल बगदादी जो पहले सीरिया में ही आतंकी संगठनों का नेतृत्व कर रहा था, वह वहां के हालात से वाकिफ है
-आईएसआईएस ने अभी अमेरिका के खिलाफ कुछ नहीं कहा है। लेकिन समय आने पर वह अमेरिका से बात करने को राजी हो जाएगा और अमेरिका अपने तेल बिजनेस की खातिर इराक को भूलकर आईएसआईएस से हाथ मिला सकता है
-ईरान ने अमेरिका के साथ मिलकर आईएसआईएस पर हमला करने की पेशकश जरूर की है, लेकिन चालाक अमेरिका ने अभी इसके लिए हामी नहीं भरी है। तरह-तरह के बहाने बनाकर समय काटा जा रहा है। अभी से इस बारे में इसके भविष्य के लिए कोई भी भविष्यवाणी चुनौतीपूर्ण है।
(नोट - नवभारत टाइम्स में 22 जून 2014 को वर्ल्ड व्यू कॉलम में इस लेख के संपादित अंश छपे हैं। यहां पाठकों की सेवा में इस लेख को असंपादित यानी मूल रूप में पेश किया जा रहा है। यही लेख नवभारत टाइम्स अॉनलाइन पर भी उपलब्ध है। पाठक वहां भी चुनिंदा पाठकों की राय पढ़ने के लिए जा सकते हैं। - यूसुफ किरमानी)
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