क्या आप शहरी नक्सली हैं...आखिर कौन है शहरी नक्सली

Urban Naxal यानी शहरी नक्सली ....यह जुमला आजकल बहुत ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है। हालांकि कभी मेनस्ट्रीम पत्रिका में सुधांशू भंडारी ने शहरी नक्सलवाद की रणनीति पर लंबा लेख लिखकर इसकी चर्चा की थी। लेकिन यह लेख सिर्फ लेख रहा और नक्सली आंदोलन के प्रणेता इसे कभी अमली जामा नहीं पहना सके। लेकिन राष्ट्रवाद और आवारा पूंजीवाद का प्रचार प्रसार करने वाले अब अपने विरोधियों के लिए शहरी नक्सली या शहरी नक्सलवाद शब्द लेकर लौटे हैं। इस वक्त केंद्र सरकार के खिलाफ उठने वाली हर आवाज को शहरी नक्सलियों की आवाज बताने का फैशन शुरू हो गया है। अगर आप सरकार के विरोध में हैं तो आप शहरी नक्सली हैं या देशद्रोही हैं।
  
हाल ही में कोरेगांव भीमा, पुणे और मुंबई में दलितों ने सड़क पर आकर जो आंदोलन किया, उसे बॉलिवुड के फिल्मकार विवेक अग्निहोत्री और उनके खेमे के लोगों ने इसे शहरी नक्लवाद बताया और लिखा। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में कन्हैया कुमार, उमर खालिद, शाहला राशिद ने पिछले दिनों तमाम मुद्दों पर जो आंदोलन किया, उसे भी शहरी नक्सलवाद से जोड़ा गया। हैदराबाद यूनिवर्सिटी, बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में हो रहे स्टूडेंट्स आंदोलन को भी इसी चश्मे से देखा जा रहा है। मुंबई में पिछले हफ्ते जब स्टूडेंट्स ने जिग्नेश मेवानी और उमर खालिद को बुलाकर स्टूडेंट्स सम्मेलन करना चाहा तो मुंबई पुलिस ने उसे शांति के लिए खतरा बताकर अनुमति ही नहीं दी। इसे भी शहरी नक्सवाद का हिस्सा बताया गया। मेवानी ने इसके बाद दलितों के मुद्दे पर दिल्ली में 9 जनवरी 2018 को हुंकार रैली रखी लेकिन दिल्ली पुलिस ने 8 जनवरी की शाम को अनुमति न देने का ऐलान किया, बहाना यह किया गया कि इसे संसद मार्ग पर क्यों आयोजित किया जा रहा है। 



इस रैली को रोके जाने की वजह विवेक अग्निहोत्री का वह पोस्टर बना जो उन्होंने रैली से ठीक पहले पूरे दिल्ली में सरकारी तंत्र के जरिए चिपकवाया और सोशल मीडिया पर प्रचारित किया। इस पोस्ट में जिग्नेश मेवानी को शहरी नक्सली बताते हुए खुली बहस की चुनौती दी गई है। पोस्टर में कहा गया है कि जिग्नेश 9 जनवरी को दिल्ली में होंगे, अगर उनमें हिम्मत हो तो वह मुझसे कॉस्टिट्यूशन क्लब में आकर बहस करें। लेकिन दिल्ली पुलिस ने रैली पर रोक लगा दी।
खास बात यह है कि इस समय संसद का सत्र भी नहीं चल रहा, जिसकी आड़ लेकर इस रैली को रोका जाता लेकिन सरकार कथित शहरी नक्सलियों से इतना डर गई है कि उसने दिल्ली पुलिस का इस्तेमाल कर मेवानी की रैली को अनुमति नहीं दी। दरअसल, इस पोस्टर के जरिए दिल्ली पुलिस को भी सार्वजनिक रूप से सूचित किया गया कि 9 जनवरी को दिल्ली में शहरी नक्सली रैली के लिए जुट रहे हैं। दिल्ली पुलिस की रोकटोक के बावजूद यह रैली हुई। रोकटोक की वजह से रैली में कम लोग पहुंचे लेकिन रैली से जो संदेश दिया जाना था, वह पहुंचा।

अरबन नक्सल को प्रचारित करने वाले जगह-जगह लिख रहे हैं कि अगर देश ने शहरी नक्सलवाद को बढ़ने और पनपने दिया तो हर जगह अराजकता के हालात बन जाएंगे। इन लोगों के मुताबिक इस शहरी नक्सलवाद का नेतृत्व गुजरात के वडगाम से हाल ही में चुने गए युवा विधायक व दलित नेता जिग्नेश मेवानी, जेएनयू के छात्र नेता उमर खालिद, कन्हैया कुमार और शाहला राशिद कर रहे हैं। यानी जहां कहीं भी युवा आंदोलन कर रहे हैं, उसके पीछे कन्हैया कुमार, जिग्नेश मेवानी, उमर खालिद व शाहला राशिद की चौकड़ी काम कर रही है।

पहले तो यह समझा जाए कि आखिर अरबन नक्सलवाद इन लोगों की नजर में क्या है और इसका प्रचार इतनी जोर-शोर से आखिर क्यों किया जा रहा है। इस जुमले को प्रचारित करने वालों का कहना है कि शहरी नक्सली वो लोग हैं, जो भारत के अदृश्य दुश्मन हैं लेकिन ये लोग पुलिस की नजर में हैं। ये शहरी नक्सली केंद्र सरकार के खिलाफ हिंसक विद्रोह का आंदोलन चला रहे है। इनमें जो एक चीज सामान्य है वह यह कि इनमें शहरी बुद्धिजीवी, प्रेरणादाई लोग या महत्वपूर्ण एक्टिविस्ट भी शामिल हैं। इन जुमलेबाजों के हिसाब मैं भी शहरी नक्सली हुआ और वह सारे शहरी नक्सली हुए जो सरकार का किसी न किसी स्तर पर विरोध कर रहे हैं।

जैसे एडवोकेट प्रशांत भूषण, किसान आंदोलन चलाने वाले योगेंद्र यादव, सहमत की शबनम हाशमी, आदिवासियों की आवाज उठाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार, सरकार विरोधी छवि लिए हुए टीवी पत्रकार व एंकर रवीश कुमार और वो असंख्य लोग जो केंद्र सरकार के विरोध में किसी न किसी स्तर पर खड़े हुए हैं। इनकी परिभाषा के हिसाब से ऐसे लोग जो लोग सिविल सोसायटी की आड़ लेकर सरकार के खिलाफ लीगल तरीके से आंदोलन खड़ा करते हैं, वह सारे शहरी नक्सली हैं। इन लोगों के हिसाब से जस्टिस लोया की मौत की जांच की मांग करने वाले और उसे लेकर अदालत में याचिका दायर करने वाले भी शहरी नक्सली हैं। इनकी नजर में तमिलनाडु से चलकर जंतर मंतर पर आकर प्रदर्शन करने वाला गांव का किसान भी शहरी नक्सली हो गया क्योंकि उसकी हिम्मत कैसे हुई कि वह गांव से निकलकर शहर में सरकार का विरोध करने चला आया।  

दरअसल, संघ और भाजपा ने ऐसे लोगों को पहले देशद्रोही कहा था। लेकिन फिर इन्हें लगा कि बाबा साहब द्वारा लिखे गए भारतीय संविधान के हिसाब से ऐसे लोगों को देशद्रोही नहीं ठहराया जा सकता तो इनको शहरी नक्सली कहना शुरू किया जाए। बहुत जल्द इस शब्द का प्रयोग सत्ता पक्ष अपने हर विरोधियों के लिए करने लगेगा। आम लोगों को शहरी नक्सली का ज्यादा मतलब समझ में नहीं आएगा, वह यही समझेगा की शहरी नक्सली कोई गुंडे मवाली हैं जो सरकार को परेशान कर रहे हैं। 

2014 का लोकसभा चुनाव प्रचंड बहुमत से जीतने के बाद बीजेपी को नियंत्रित करने वाले संगठन आरएसएस ने यह मान लिया था कि देश को कट्टर बनाने की उसकी मुहिम को लोगों ने पसंद किया है, तभी लोगों ने बीजेपी को वोट दिया। लेकिन वो यह भूल गए कि कट्टरता की लाख घुट्टी पिलाने के बाद जब इंसान भटककर रोटी-रोजी, महंगी होती जा रही स्कूल फीस, अस्पताल का महंगा इलाज और टूटी सड़कों पर सोचने लगता है तो सारी कट्टरता का नशा काफूर हो जाता है। जब वह देखता है कि कोई कैसे भात न मिलने पर इस देश में दम तोड़ देता है। जब वह देखता है कि कैसे एंबुलेंस न मिलने पर कोई अपनी पत्नी या बच्चे को पीठ पर लाद कर शहर से गांव या गांव से शहर ले जाता है।...उस वक्त सारा कट्टर हिंदूवाद-कट्टर मुस्लिमवाद हवा हो जाता है। फिर संघ की घुट्टी से उसे चिढ़ होने लगती है।

आवारा पूंजीवाद जो इस कट्टरता को पाल-पोस रहा है, वह रोटी-रोजगार से जुड़े मुद्दों पर आंदोलन खड़ा करने वालों की काट नहीं कर पा रहा है। ऐसे में झाड़पोंछकर शहरी नक्सली शब्द को खड़ा किया जा रहा है और बताया जा रहा है कि अगर कोई दलित आरक्षण की बात करे तो उसे शहरी नक्सली बता दो। अगर कोई रोहित वेमुला खुदकुशी करे तो उसे नक्सली बता दो, कोई कन्हैया कुमार, जिग्नेश मेवानी या उमर खालिद अगर मानवाधिकार की बात करे तो उसे भी शहरी नक्सली साबित कर दो। यहां तक कि वकील प्रशांत भूषण अगर सरकार के किसी पसंदीदा जज पर ऊंगली उठा दें तो उन्हें भी इसी सूची में डाल दो। हर चीज का इलाज शहरी नक्सली में तलाश लिया गया है। कोई भी मांग उठाने वाला अब शहरी नक्सली है।

विवेक अग्निहोत्री ने पांच फिल्में बनाई हैं। जिनमें चॉकलेट, गोल, बुद्धा इन ट्रैफिक जाम के अलावा दो फिल्में और हैं। मैं उनकी बनाई फिल्मों पर चर्चा नहीं करना चाहता कि वह कितनी अच्छी या बुरी हैं। मैं इस पर भी चर्चा नहीं करना चाहता कि बुद्धा इन ट्रैफिक जाम उन्होंने मोदी के समर्थन में क्यों बनाई। आईआईएमसी दिल्ली से पत्रकारिता की पढ़ाई करने वाले विवेक एक तेजतर्रार फिल्ममेकर हो सकते हैं लेकिन जिस तरह से वह आम लोगों की आवाज को शहरी नक्सली बताने पर तुल गए हैं वह उनकी सारी काबिलियत को छोटा कर रहा है। बुद्धा इन ट्रैफिक जाम को चर्चा में लाने के लिए उन्होंने अनुपम खेर और जेएनयू का इस्तेमाल किया। जेएनयू में जिस वक्त कन्हैया और उमर खालिद का आंदोलन चरम पर था, विवेक वहां अनुपम खेर को लेकर इस छात्र आंदोलन का विरोध करने पहुंच गए। वहां इन लोगों ने पहले फिल्म दिखाई और उसके बाद कथित शहरी नक्सलियों को ललकारा। जेएनयू के स्टूडेंट्स विवेक और अनुपम की घुट्टी से जरा भी प्रभावित नहीं हुए। लेकिन विवेक को एक रास्ता मिल गया। 

वह सत्ता पक्ष की आवाज बन गए। अब सत्ता पक्ष उन्हें बहुत चालाकी से युवाओं के खिलाफ इस्तेमाल कर रहा है। चूंकि विवेक युवा हैं और सत्ता पक्ष को यह पता है कि जिग्नेश, कन्हैया, उमर खालिद के विरोध में अगर किसी चर्चित युवा को खड़ा किया जाएगा तो लोग गफलत में रहेंगे कि इनमें किस युवा नेता की बात सही है। अब हालात यह है कि विवेक हर मंच पर जाकर इन स्टूडेंट्स लीडर्स को शहरी नक्सली बताने लगे हैं। तमाम सोशल साइट्स पर लेख लिख रहे हैं। एक लेख में उन्होंने कन्हैया कुमार पर बहुत तीखा हमला किया और लिखा कि यह आदमी युवाओं का आदर्श (यूथ आइकन) नहीं हो सकता। यह शहरी नक्सली है। इसी लेख में उन्होंने मनुवाद की निंदा करने वालों पर लिखा कि इन लोगों ने मनुस्मृति पढ़ी नहीं है और बेकार में मनुवाद का विरोध कर रहे हैं। शहरी नक्सलियों को पहले यह किताब पढ़नी चाहिए। 

आप लोगों को याद होगा कि जेएनयू में और महाराष्ट्र में कई स्थानों पर मनुस्मृति को जलाया गया था। दलितों का कहना है कि मनुस्मृति से वर्ण व्यवस्था अस्तित्व में आई और उन्हें भारत में सवर्ण लोगों का गुलाम बना दिया गया। मनुस्मृति वाले विदेशी आक्रमणकारी आर्य हैं जो हम मूल निवासियों (दलित) के संसाधनों पर कब्जा कर रहे हैं, हमारा हक छीन रहे हैं। लेख लिखकर विवेक का मनुवाद पर किया गया हमला बताता है कि वह सत्तापक्ष के हथियार बन गए हैं। वह उस मानसिकता का प्रचार कर रहे हैं जो दलितों को उनके अधिकार से वंचित करती है।    

विवेक को शहरी नक्सली (Urban Naxal) शब्द इतना पसंद आया है कि वह इसी नाम से एक किताब भी लिख रहे हैं। इस शब्द को वह अपने फेसबुक और ट्विवटर पर बाकायदा हैशटैग बनाकर चला भी रहे हैं। ...मतलब समझ में आता है कि किताब आने से पहले इस शब्द को इतना आम कर दिया जाए कि न तो प्रकाशक को घाटा हो और न विवेक को घाटा हो।

बहरहाल, मुझे तो लगता है कि विवेक को फिल्में बनाना छोड़कर राजनीति में आना चाहिए, ताकि कथित शहरी नक्सलियों यानी देशद्रोहियों के खिलाफ उनकी आवाज को लोग सुन सकें। अभी न तो वह ठीक से पूरे फिल्मकार बन पाए हैं औ न नेता। आखिर क्यों वह बॉलिवुड के अशोक पंडित, मधुर भंडारकर, पहलाज निहलानी की गिनती में आना चाहते हैं।

उन्हें किसी को शहरी नक्सली या देशद्रोही बताने से पहले मौजूदा दौर के बहुत बड़े उपन्यासकार पाउलो कहलो Paulo Coelho को पढ़ना चाहिए जो कहते हैं कि "You can Love Your Country Without having to love Your Government." यानी आप अपने देश को बिना अपनी सरकार से प्यार किए बिना भी प्यार कर सकते हैं। ...और मैं इसे अपने शब्दों में तोड़मरोड़ कर कहूं कि - अगर आप राष्ट्रवादी नहीं हैं तो इसका यह मतलब नहीं है कि आप देशद्रोही हैं।  
(Copyrights@JournalistYusufKirmani2018)



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