दलित संघ और भाजपा की चाल समझें

दलित नेतृत्व आक्रामक क्यों नहीं हो रहा

यह दिलचस्प है कि मीडिया के न चाहने के बावजूद दलित मुद्दा ख़बरों के केंद्र में आ गया है...लेकिन दलित नेतृत्व अभी भी उतना आक्रामक नहीं हो पाया है जितना उसे होना चाहिए...मसलन भाजपा के तमाम नेता उन दलित  सांसदों को अवसरवादी बता रहे हैं, जिन्होंने पिछले एक हफ़्ते में दलित उत्पीड़न के ख़िलाफ़ बयान दिया है। इन नेताओं की हिम्मत तभी बढ़ी जब उसने दलित नेतृत्व को आक्रामक नहीं पाया।

इस चाल को समझना होगा
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भाजपा सांसद Udit Raj को इस सिलसिले में पहल करनी चाहिए। उन्हें चाहिए कि वह भाजपा के अंदर बाकी दलित सांसदों के साथ एक प्रेशर ग्रुप बना दें। अपनी माँगें स्पष्ट रखें और न मानी जाने पर पार्टी में विद्रोह करें। उदितराज ने कई लड़ाइयाँ लड़ी हैं। एक और सही। यह बहुत साफ़ है कि भाजपा में दलितों को वह नेतृत्व या सम्मान नहीं मिलने वाला जो कांग्रेस या बसपा में है। 

भाजपा के दलित सांसदों व बाक़ी नेताओं को समझना होगा कि आरएसएस और भाजपा धीरे धीरे उस तरफ़ बढ़ रहे हैं जब वह आरक्षण को ख़त्म कर देंगे। उसके पहले वह अपनी पार्टी में मूक दलित नेताओं की जमात खड़ी कर देना चाहते हैं जो आरक्षण ख़त्म किए जाने पर उसका समर्थन करें। भाजपा को दलितों के मुद्दे पर बड़े पैमाने पर शाहनवाज़ हुसैन और मुख़्तार अब्बास नकवी चाहिए।...

कहाँ गए वो लोग
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भाजपा में एक आरिफ़ बेग भी शोभा बढ़ाते थे...उनका कद भाजपा ने कहाँ तक पहुँचाया कोई बता सकता है? 2016 में उनका निधन हो गया। बेचारे को भाजपा ने बयान दिलवाने के लिए ख़ूब इस्तेमाल किया। सिकंदर बख्त का क्या हुआ...उन्हें भी भाजपा या संघ ने कभी आडवाणी, उमा भारती या मुरली मनोहर जोशी के क़द के बराबर पहुँचने नहीं दिया । ...और तो और सिकंदर बख्त और आरिफ़ बेग कभी भी सपा के आज़म खान और कांग्रेस के ग़ुलाम नबी आज़ाद के लेवल तक भी नहीं पहुँच पाए। इस बार तो उन्हें राज्यसभा तक में नहीं भेजा गया। जिस पार्टी ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को ही मुखौटा माना और कहा हो उसमें दलित सांसदों या दलित नेताओं की दाल भला कहाँ गलने वाली ?


अभी भी बन सकते हैं किंगमेकर
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वापस दलितों पर आते हैं। संघ और भाजपा नेतृत्व में दलितों का एक लेवल तय है। उसके आगे वह नहीं जा सकते। कल्पना कीजिए कि संघ का नेतृत्व क्या कभी कोई दलित या मुसलमान कर पाएगा। कैडर आधारित बाकी पार्टियों का अध्ययन करें तो आपको दलितों के संबंध में तमाम बयान लफ़्फ़ाज़ी लगने लगेंगे। कांशीराम ने बहुत सोचसमझकर बहुजन समाज पार्टी का ताना बाना बुना था। उनके मरने के बाद मायावती के रूप में दलित नेतृत्व भ्रष्टाचार की तरफ़ नहीं बढ़ता तो आज दलित नेतृत्व भारतीय राजनीति का किंगमेकर होता।

लेकिन गेम अभी हाथ से निकला नहीं है। दलित नेतृत्व को हर तरह की क़ुर्बानी देकर संघ और भाजपा को रोकने के लिए लंबी रणनीति के तहत काम करना चाहिए। दलित, अति पिछड़े और मुसलमान मिलकर भारत की राजनीति का रूख मोड़ने की हैसियत रखते हैं। यह गठजोड़ अभी भी किंगमेकर बन सकता है। मायावती को चाहिए कि भाजपा से जो दलित सांसद बाहर निकलना चाहते हैं उनको मौक़ा दें। उन्हें टिकट देने के वादे के साथ पार्टी में शामिल करें। मायावती का अखिलेश के साथ जो समझौता हुआ है उस पर अब और आगे पहल करने की ज़रूरत है। दोनों पार्टियों की एक कमिटी बनाकर सीट शेयर, एडजस्टमेंट की बात अभी से आगे बढ़ाई जाए। एक साल तैयारियों के लिए कम है। जब तक दोनों पार्टियाँ यूपी में  एक एक लोकसभा सीट को चुनौती के रूप में स्वीकार नहीं करेंगी और प्रभावी रणनीति के साथ सामने नहीं आतीं तब तक भाजपा और कांग्रेस से मुक़ाबला आसान नहीं होगा।

यूपी ही है मैदान-ए-जंग

मायावती और अखिलेश को समझना होगा कि अगले लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश ही जंग का मैदान बनेगा। यूपी में कानून व्यवस्था की हालत बिगड़ चुकी है।योगी आदित्यनाथ प्रभावशाली मुख्यमंत्री साबित नहीं हो सके। भाजपा विधायकों पर रेप के आरोप लग रहे हैं। उन्नाव की घटना दहलाने वाली है। इतनी प्रचंड बहुमत सेजीती भाजपा को विधायकों के विद्रोह का डर सता रहा है। गोसंरक्षण से ऊबे भाजपा विधायक और नेता गुंडागर्दी पर उतर आए हैं। जो बदमाश भाजपा की छतरी केनीचे नहीं उसका एनकाउंटर। जो बदमाश मुस्लिम वोटरों को फूलपुर में रोकने के लिए चुनाव लड़ ले उसके हिस्ट्रीशीटर भाई को इलाक़े में छूट मिल जाती है। यह सारी स्थितियाँ मायावती और अखिलेश के लिए अनुकूल हालात पैदा कर रहे हैं। लेकिन हालात को कैश कराने का माद्दा भी तो होना चाहिए।

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