संदेश

छह मुल्ले मोदी के साथ क्यों....

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                                                 ये मैं नहीं फेसबुक पर लोग कह रहे हैं Note : This article also available on NBT ONLINE. Most of the readers are commenting there. You can visit there and read comments. Link - http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/yusufkirmani/entry/bjp-trying-to-woo-muslims नोटः .ये लेख नवभारत टाइम्स की अॉनलाइन साइट पर भी उपलब्ध है। वहां पाठकों की भारी प्रतिक्रिया आ रही है। उन प्रतिक्रियाओं को पढ़ने और सारे मुद्दे को समझने के लिए आप भी वहां जाकर टिप्पणियों को पढ़ सकते हैं। इस लिंक पर जाएं - http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/yusufkirmani/entry/bjp-trying-to-woo-muslims चुनाव का मौसम है...फेसबुक का साथ है...वल्लाह क्या बात है। कायदे से इस तरह से मेरे लेख की शुरुआत नहीं होनी चाहिए थी लेकिन अब हो गई तो आइए बात करते हैं। हुआ यह कि अभी नरेंद्र मोदी का एक फोटो कुछ मौलाना लोगों के साथ अखबारों और फेसबुक पर प्रकट हुआ। ....आफत हो गई। मौलाना लोगों को यह गलतफहमी है कि वे अगर हां कहेंगे तो इस देश के मुसलमान हां कहेंगे औऱ नहीं कहेंगे तो नहीं

वो दोनों किसी जमात में नहीं शामिल

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- यह लेख नवभारत टाइम्स की आनलाइन साइट nbt.in or navbharattimes.com पर भी उपलब्ध है... गुजरात में हुए जनसंहार (Gujarat Genocide) को एक दशक बीत चुके हैं। इसके अलावा भी इस दौरान और इसके बाद दंगों वाले कई शहरों में रहना और उस शहर को जीता रहा। तमाम तल्ख सच्चाइयों से रूबरू होता रहा। एक दशक बाद गुजरात के दंगों (Gujarat R iots ) पर बात होती है तो कहा जाता है कि गड़े मुर्दे उखाड़ने की अब क्या जरूरत है लेकिन गुजरात दंगों के दो चेहरों – कुतुबुद्दीन अंसारी और अशोक मोची – पर दंगों के बाद जो गुजरी औऱ अब इनके क्या विचार हैं, इससे जानना और लोगों तक इनकी बात पहुंचाना बहुत जरूरी है। गोधरा कांड के बाद गुजरात में दंगे शुरू हो गए और अखबारों में वहां की भयावह खबरे और फोटो सामने आने लगे। लोगों के मानसपटल पर दो फोटो उस वक्त जो छाए तो आज भी वो दो फोटोग्राफ भुलाए भी नहीं भूलते। एक फोटो कुतुबुद्दीन अंसारी का, जिसमें हाथ जोड़ते औऱ आंखों में आंसू लिए हुए अंसारी रहम की भीख मांगते हुए और दूसरा अशोक मोची का फोटो, जिसमें हाथ में रॉड और माथे पर दुपट्टा (आप समझ सकते हैं कि ये कौन सा दुपट्टा होता है) बांधे ए

नरेंद्र मोदी रिमिक्स....भाजपा मुक्त भारत...Narendra Modi Sings Remix... BJP Mukt India...

A must watch Video...it's funny but message is clear. इस विडियो को जरूर देखें...हालांकि काफी मजेदार है लेकिन एक संदेश भी है इसमें....

बारह बरस से भटकती रूहें...

साभार...जनपथ ब्लॉग                                                  लेखक   अभिषेक श्रीवास्‍तव इतिहास गवाह है कि प्रतीकों को भुनाने के मामले में फासिस्‍टों का कोई तोड़ नहीं। वे तारीखें ज़रूर याद रखते हैं। खासकर वे तारीखें, जो उनके अतीत की पहचान होती हैं। खांटी भारतीय संदर्भ में कहें तो किसी भी शुभ काम को करने के लिए जिस मुहूर्त को निकालने का ब्राह्मणवादी प्रचलन सदियों से यहां रहा है, वह अलग-अलग संस्‍करणों में दुनिया के तमाम हिस्‍सों में आज भी मौजूद है और इसकी स्‍वीकार्यता के मामले में कम से कम सभ्‍यता पर दावा अपना जताने वाली ताकतें हमेशा ही एक स्‍वर में बात करती हैं। यह बात कितनी ही अवैज्ञानिक क्‍यों न जान पड़ती हो, लेकिन क्‍या इसे महज संयोग कहें कि जो तारीख भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक कालिख की तरह यहां के फासिस्‍टों के मुंह पर आज से 12 साल पहले पुत गई थी, उसे धोने-पोंछने के लिए भी ऐन इसी तारीख का चुनाव 12 साल बाद दिल्‍ली से लेकर वॉशिंगटन तक किया गया है ? मुहावरे के दायरे में तथ्‍यों को देखें।  27 फरवरी 2002  को गुजरात के गोधरा स्‍टेशन पर साबरमती एक्‍सप्रेस जलाई गई थी

चार्वाक: इंसानी सभ्यता पर कलंक वह "शासकीय कत्लेआम"...

चार्वाक: इंसानी सभ्यता पर कलंक वह "शासकीय कत्लेआम"... 27 फरवरी 2002 को हुए गोधरा कांड के परदे में जिस गुजरात कत्लेआम की शुरुआत हुई थी, समूची इंसानी सभ्यता के उस ऐतिहासिक कलंक को दफ़न करने की मंशा से इस तारीख पर अब धुंधली परतें चढ़ाने की कोशिश की जा रही हैं। लेकिन क्या वह सचमुच भूल सकने वाली कोई त्रासद साजिश थी? क्या उसे भूला जाना चाहिए? गुजरात कत्लेआम की पृष्ठभूमि पर लिखी यह कहानी "मास्टर साहब की डायरी" बड़ी जद्दोजहद से किसी तरह "पाखी" में छप सकी थी। इससे पहले "कथादेश" जैसी एकाध पत्रिकाओं में घोषणा के कई महीने के बाद भी नहीं छप सकी थी। कुछ जगहों पर इसमें संपादक ने अपने हिसाब से फेरबदल करने की सलाह दी थी। हमने यह सलाह ख़ारिज़ कर दी। लेकिन प्रेम भारद्वाज ने इसे अपनी शक्ल में छापा था। आज उस कत्लेआम की शर्म पर परदा डालने की कोशिश के बीच उसकी याद बनाए रखने के मकसद से इस कहानी को आप सबके साथ फिर से साझा कर रहा हूं। हां, मैं चाहता हूं कि इंसानियत के लिए शर्मिंदगी और सभ्यता पर कलंक उस "शासकीय" कत्लेआम को याद रखा जाए, तब तक, जब तक हम एक ऐसी जम

मदर्स डे पर बहस

This article is also available on NavBharat Times newspaper's portal www.nbt.in in blog section. आज अपने एक दोस्त के घर गया तो वहां उनके बेटे और बेटी को मदर्स डे (Mother's Day) पर बहस करते पाया। उनकी बेटी ने मां के उठने से पहले किचन में एक बड़ा सा पोस्टर चिपका दिया था जिसमें मां को मदर्स डे की बधाई दी गई थी। उनके बेटे ने अपनी बहन का मजाक उड़ाया और कहा कि इस तरह की आर्टिफिशयल चीजों से मदर्स डे मनाना फिजूल है। यह दिखावा है और यह सब हमारी संवेदनाओं का बाजारीकरण है। मेरे पहुंचने पर दोनों ने मुझे पंच बनाकर अपने- अपने विचारों के हक में राय मांगी।...मेरी गत बन गई। एक तरफ मैं उस मीडिया का हिस्सा हूं जो इस बाजारीकरण या इसे इस मुकाम तक लाने में अपनी खास भूमिका निभा रहा है और आर्चीज वालों के साथ मिलकर 365 दिनों को किसी न किसी डे (दिवस) में बांट दिया है, दूसरी तरफ संवेदनशीलता यह कहती है कि अगर ऐसे दिवस मनाए जा रहे हैं तो भला इसमें बुराई क्या है, सोसायटी को कोई नुकसान तो नहीं हो रहा है। पता नहीं मौजूदा पीढ़ी को मक्सिम गोर्की के बारे में ठीक से पता भी है या नहीं या फिर अब व

गुंडे कैसे बन जाते हैं राजा

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मेरे मोबाइल पर यूपी से कॉल आमतौर पर दोस्तों या रिश्तेदारों की ही आती है लेकिन इधर दो दिनों से  कुंडा (प्रतापगढ़) में डीएसपी जिया-उल-हक की हत्या के बाद ऐसे लोगों की कॉल आई जो या तो सियासी लोग हैं या ऐसे मुसलमान जिनका किसी संगठन या पॉलिटिक्स (Politics) से कोई मतलब नहीं है। ये लोग यूपी के सीएम अखिलेश यादव, उनके पिता मुलायम सिंह यादव को जी भरकर गालियां दे रहे थे। मैं हैरान था कि ये वे लोग हैं जो समाजवादी पार्टी को भारी बहुमत से जिताकर लाए थे और अखिलेश के चुनावी वादे लैपटॉप-टैबलेट (Laptop-Tablate) और बेरोजगारी भत्ते के हसीन सपनों में खोए हुए थे। मैं जब पिछली बार फैजाबाद में था तो इनमें से कुछ लोग मोहल्ले और पड़ोस की लिस्ट बनाने में जुटे थे और हिसाब लगा रहे थे कि किसको नेताजी से लैपटॉप दिलवाना है और किसको मुफ्त का भत्ता दिलाना है। ...लेकिन भत्ता तो नहीं लेकिन अखिलेश और उनके प्रशासन ने यूपी के मुसलमानों को ऐसी टैबलेट दी है कि जिसे वे न तो निगल पा रहे हैं और न उगल पा रहे हैं। कुंडा में डीएसपी की हत्या के बाद टांडा में हिंदू-मुस्लिम दंगे के बाद कर्फ्यू लगाना पड़ा। बरेल