60 दिन का आंदोलनबाग - शाहीनबाग

शाहीनबाग आंदोलन 60 दिन पुराना हो गया है। जहरीले चुनाव से उबरी दिल्ली में किसी आंदोलन का दो महीने जिंदा रहना और फिलहाल पीछे न हटने के संकल्प ने इसे आंदोलनबाग बना दिया है। ऐसा आंदोलनबाग जिसे तौहीनबाग बताने की कोशिश की गई, लेकिन शाहीनबाग की हिजाबी महिलाओं ने तमाम शहरों में कई सौ शाहीनबाग खड़े कर दिए हैं। बिना किसी मार्केटिंग के सहारे चल रहे महिलाओं के इस आंदोलन को कभी धार्मिक तो कभी आयडेंटिटी पॉलिटिक्स (पहचनवाने की राजनीति) बताकर खारिज करने की कोशिश की गई। लेकिन आजाद भारत में मात्र किसी कानून के विरोध में हिजाबी महिलाओं का आंदोलन इतना लंबा कभी नहीं चला। 

#शाहीनबाग_में_महिलाओं_का_आंदोलन 15 दिसंबर 2019 से शुरु हुआ था। आंदोलन की शुरुआत शाहीनबाग के पास #जामिया_मिल्लिया_इस्लामिया में समान नागरिकता कानून (#सीएए) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (#एनआरसी) के खिलाफ छात्र-छात्राओं के आंदोलन पर पुलिस लाठी चार्ज के खिलाफ हुई थी। शाहीनबाग की महिलाओं के नक्श-ए-कदम पर #बिहार में गया, उत्तर प्रदेश में #लखनऊ, #इलाहाबाद और #कानपुर तो पश्चिम बंगाल में कोलकाता में इसी तर्ज पर महिलाएं इसी मुद्दे पर धरने पर बैठी हुई हैं। गया की महिलाएं 25 दिसंबर से बैठी हैं और बाकी शहरों में कुछ दिनों पहले बैठीं।


भारत में #मुस्लिम_महिलाओं की शक्ल कभी इस आंदोलनकारी रूप में नहीं आई थीं। केंद्र सरकार ने तीन तलाक कानून बनाया तो इसके पक्ष और विपक्ष में मुस्लिम महिलाओं के प्रदर्शन दिल्ली, मुंबई, #पटना, लखनऊ वगैरह में नजर आए लेकिन उन्हें राजनीतिक आंदोलन बताकर खारिज कर दिया गया था। जिन मुस्लिम महिला संगठनों ने तीन तलाक कानून के पक्ष में प्रदर्शन किया, उन्हें सरकारी बताकर खारिज कर दिया। जिन महिलाओं ने तीन तलाक कानून के विरोध में प्रदर्शन किया, उसे मौलवियों की साजिश बताकर खारिज कर दिया गया। हालांकि दोनों तरह के आंदोलनों में महिलाओं की उपस्थिति में जमीन आसमान का अंतर था लेकिन #मीडिया की नजर में मामला कुल मिलाकर खारिज ही रहा।

टीवी चैनलों पर मुद्दों की दुकान चलाने वाले पेशेवर ऐंकरों ने पहले बीस दिन तो शाहीनबाग में #हिजाबी_महिलाओं_के_आंदोलन को भी धार्मिक बताकर खारिज कर दिया। लेकिन इसके बावजूद महिलाएं जब वहां जमी रहीं तो मुद्दों की मार्केंटिंग करने वाले इसे देशविरोधी बताकर थक गए। फिर कहना शुरू किया गया कि यह सब आयडेंटिटी पॉलिटिक्स के लिए किया जा रहा है। मुसलमानों को हर कुछ दिन बाद अपनी आयडेंटिटी पॉलिटिक्स के लिए करना पड़ता है तो इस बार वे अपनी महिलाओं को आगे करके यह राजनीति कर रहे हैं। पेशेवर ऐंकरों के इस प्रचार को सोशल मीडिया ने ध्वस्त किया। जब #सोशल_मीडिया_शाहीनबाग को लेकर आक्रामक हुआ तो ऐंकरों को साख बचाने के लिए वहां लहराते तिरंगे झंडे को दिखाना पड़ा और #गंगा_जमुनी_तहजीब भी दिखानी पड़ी। लेकिन पेशेवर ऐंकरों के गले से अभी भी यह बात नीचे नहीं उतर रही है कि आखिर कैसे तीन तलाक से पीड़ित और  हर वक्त पर्दे में कैद कर रखी जाने वाली अनपढ़ मुस्लिम महिलाएं इतनी बड़ी तादाद में डेढ़ महीने से धऱने पर बैठी हैं। 

दिल्ली के शाहीनबाग से लेकर लखनऊ के घंटाघर और बाकी जगहों पर धरने पर बैठी महिलाओं ने इस आंदोलन ने अपनी उस दकियानूसी, पर्देवाली और जाहिल वाली छवि को ध्वस्त कर दिया है, जिसके पहचान के दायरे में उन्हें बांध दिया गया था। चाहे सिनेमा हो, साहित्य हो, कला हो, पत्रकारिता हो, राजनीति हो, हर जगह मुस्लिम महिलाओं को दीन-हीन दशा में पेश किया जाता रहा है। 

महिला आंदोलनों पर नजर रखने वाले जामिया मिल्लिया इस्लामिया में इंटरनैशनल स्टडीज के प्रोफेसर डॉ मोहम्मद सोहराब का कहना है कि मुस्लिम महिलाओं की दकियानूसी छवि एक प्रबुद्ध तबके ने जानबूझकर बनाई थी, हकीकत में वो वैसी कभी नहीं थीं या हैं। इस्लाम के शुरू होने से लेकर आज तक मुस्लिम महिलाओं की भूमिका बाकी समुदायों के मुकाबले किसी भी मोर्चे पर कमतर नहीं रही। तमाम मुद्दों पर उसकी चुप्पी का मतलब यह नहीं था कि वह दकियानूसी थीं या उनमें आधुनिकता की कमी थी। उसके पास एक से एक हुनर हैं लेकिन उनकी मार्केंटिंग करने वाला कभी कोई नहीं रहा।

कई किताबों के लेखक और दिल्ली यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफेसर डॉ. #शम्सुल_इस्लाम इसे अप्रत्याशित घटना के रूप में देखते हैं। वह कहते हैं कि #आंदोलनकारी_मुस्लिम_महिला की ऐसी छवि एक खास विचारधारा की मार्केटिंग करने वालों की नजर में कभी थी ही नहीं। वे तो मुस्लिम महिलाओं को ही नहीं पूरे #मुस्लिम_समाज को घर की मुर्गी दाल बराबर (टेकन फॉर ग्रांटेड) समझ रहे थे। उन्होंने देखा कि #अयोध्या पर इतना बड़ा फैसला आया, मुस्लिम चुप रहा, कहीं से कोई आंदोलन नहीं चला। कश्मीर में #धारा_370 हटाई गई, कश्मीरियों पर जुल्म-ओ-सितम हुए शेष #भारत_का_मुसलमान चुप रहा, तीन तलाक कानून पास हो गया, मुसलमान चुप रहा। तो उन पैरोकारों ने सोचा कि क्यों न एक रद्दा और रखकर देख लिया जाए कि सीएए और एनआरसी का वजन सह पाएंगे या नहीं। उन्हें विरोध की आशंका थी लेकिन बेचारी की छवि बनाकर जमींदोज कर दी गई मुस्लिम महिलाओं के शाहीनबाग से उभरने की उम्मीद कतई नहीं थी। 

शाहीनबाग अब मुस्लिम महिलाओं के संघर्ष का एक प्रतीक बन गया है। लेकिन यह हकीकत है कि छवि गढ़ने वाले बाजार में कभी किसी समुदाय की महिलाओं के जुझारूपन को गहराई से समझने की कोशिश नहीं की जाती है। 2011 में पिछली जनगणना हुई थी। 2016 में उस जनगणना के शिक्षा संबंधी आंकड़े सरकार ने जारी किए। उस सरकारी आंकड़े के मुताबिक भारत में 48.11 फीसदी मुस्लिम महिलाएं अनपढ़ हैं यानी उन्हें अपना लिखना-पढ़ना भी नहीं आता है। दूसरी तरफ 44.03 फीसदी हिंदू महिलाओं को भी अपना नाम लिखना-पढ़ना नहीं आता। यह आंकड़ा बहुत कुछ बताता है। लेकिन देश का एक बहुत बड़ा हिस्सा और खास तौर से प्रबुद्ध वर्ग मुसलमानों के बारे में फैली तमाम धारणाओं से पीछा छुड़ाने को तैयार नहीं है। पिछली जनगणना के समय ही यह तथ्य सामने आए थे कि मुस्लिम महिलाओं का साक्षरता अनुपात बहुत मामूली सुधरा है। इस मामूली सुधार को भी धारणा पालने औऱ बनाने वालों ने स्वीकार नहीं किया। नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (NFHS) ने अपनी 2015-16 की रिपोर्ट में बताया कि मुस्लिम महिलाओं ने शिशु प्रजनन दर में 50 फीसदी की कमी कर ली है। पहले मुस्लिम दंपति 4-5 बच्चे पैदा करने के लिए बदनाम थे लेकिन अब वो 2 बच्चे ही चाहते हैं। एनएफएचएस के सर्वे में 2001 के मुकाबले 2015-16 में 50 फीसदी का आंकड़ा इसी का प्रमाण है।

उच्च शिक्षा पर 2018 में आए एक सरकारी सर्वे रिपोर्ट में कहा गया कि 2013-14 से अब तक सरकारी कोशिशों की वजह से महिला एनरोलमेंट (पढ़ाई के लिए एडमिशन) में 24 फीसदी का इजाफा हुआ है। लेकिन मुस्लिम महिलाओं के उच्च शिक्षा में एनरोलमेंट में 47 फीसदी का इजाफा हुआ है। यानी राष्ट्रीय एनरोलमेंट दर के मुकाबले मुस्लिम लड़कियों की एनरोलमेंट दर दोगुना बढ़ गई। उच्च शिक्षा में लड़कियों की पढ़ाई को लेकर मुसलमानों में आए इस बदलाव को कभी रेखांकित करने की कोशिश सरकारी या गैर सरकारी स्तर पर नहीं हुई। सही मायने में सरकार के बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ मुहिम का फायदा मुस्लिम दंपतियों ने ही उठाया है, अन्यथा एनरोलमेंट दोगुना नहीं होता। यहां यह ध्यान देना चाहिए कि हम स्कूल ड्रॉप आउट में मुस्लिम बच्चों के पढ़ाई छोड़ने का जिक्र तो करते हैं लेकिन उच्च शिक्षा में बढ़ रहे उनके एनरोलमेंट पर गौर नहीं कर रहे हैं।

शहर-शहर खड़े हो रहे शाहीनबाग न सिर्फ मुस्लिम महिलाओं के संदर्भ में बल्कि सभी महिलाओं को समझने के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण अवसर है। इस अवसर को महिलाओं के सामने पेश अन्य गंभीर चुनौतियों के लिए भुनाया जाना चाहिए। इस आंदोलन से उनकी परिवपक्वता सामने आई है। उनकी इस परिपक्वता को सार्थक बनाए रखने का काम जारी रहना चाहिए।



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