महात्मा गांधी के संघीकरण की शुरूआत



 आरएसएस का गांधी प्रेम बढ़ता ही जा रहा है। आरएसएस के मौजूदा प्रमुख या सरसंघचालक मोहन भागवत 17 फ़रवरी को दिल्ली में गांधी स्मृति में जा पहुंचे। संघ के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब कोई सरसंघचालक गांधी स्मृति में पहुंचा है। गांधी स्मृति वह जगह है जहां 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या की गई। गांधी स्मृति गांधीवाद का प्रतीक है। वहां किसी सरसंघचालक का पहुंचना छोटी घटना नहीं है। लेकिन क्या है यह सब...अचानक इतना गांधी प्रेम...गांधी को इतना आत्मसात करने की ललक कांग्रेस जैसी पार्टी ने भी नहीं दिखाई, जो खुद को गांधी की विरासत का कस्टोडियन मानती है।

 #संघ की गांधी के प्रति यह ललक दरअसल 2 अक्टूबर 2019 से प्रत्यक्ष दिखाई पड़ रही है, जब इन्हीं मोहन भागवत ने ट्वीट कर कहा था कि गांधी को स्मरण करने की बजाय उनका अनुसरण करना चाहिए। मोहन भागवत की उस समय की प्रतिक्रिया पर किसी का ध्यान नहीं गया और न ही इसे किसी ने गंभीरता से लिया था। लेकिन जब 17 फरवरी को उन्होंने दोबारा से #गांधी का अनुसरण करने की बात कही और #गांधी_स्मृति जाने की पहल की तो लगा मामला अब गंभीर है। संघ की इस चालाक पहल पर चर्चा होनी चाहिए और इसका विश्लेषण भी किया जाना चाहिए। 



एक सीधा सा जवाब या विश्लेषण यह है कि संघ के पास अपना कोई इतना बड़ा प्रतीक नहीं है जो नई पीढ़ी या हमारे दौर की पीढ़ी उन्हें गंभीरता से ले सके। संघ के संस्थापक डॉ केशव #हेडगेवार के बाद #हिंदुत्ववादी_विचारधारा को आगे बढ़ाने वाले #गोलवरकर, सावरकर, पंडित दीन दयाल उपाध्याय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी इतनी बड़ी शख्सियत नहीं रहे कि उन पर भारतीय घरों के ड्राइंगरूम में गांव की चौपाल पर चर्चा हो। 

#सावरकर और उनके चेले नाथूराम #गोडसे, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और #अटल बिहारी वाजपेयी तो तमाम तरह के विवादों में घिरे रहे। वो भारतीय घरों में महात्मा गांधी, #भगत_सिंह, #आंबेडकर, नेताजी सुभाष चंद्र #बोस जैसी चर्चा या बहस के केंद्र में कभी नहीं आए। गांधी, भगत सिंह और नेताजी सुभाष चंद्र बोस की विचारधाराओं में कोई तालमेल नहीं था लेकिन इसके बावजूद भारतीय घरों में इन सभी की लोकप्रियता एकजैसी है और गांधी तो खैर अंतरराष्ट्रीय शख्सियत हैं। 

1925 में संघ की स्थापना हुई थी। वह इस मायने में तो सफल रहा कि उसने अपने राजनीतिक मुखौटों और असंख्य अनुषांगिक संगठनों के ज़रिए देश को हिंदू-मुसलमान के आधार पर बांट दिया लेकिन वह अपने प्रतीकों को भारत के आम लोगों में, घरों में स्थापित नहीं कर पाया। गांधी के खिलाफ जब भी संघ ने मोर्चेबंदी कर गोलवरकर या सावरकर को स्थापित करना चाहा, तब-तब उसे मुंह की खानी पड़ी। संघ के कई अनुयायियों ने गांधी जी के चरित्र पर चोट करने वाली फिल्में और मनघड़ंत कहानियां तक प्रचारित कीं लेकिन इसके बावजूद गांधी भारतीयों के दिलोदिमाग से उतर नहीं सके।

 संघ की इस बात के लिए तारीफ करनी होगी कि वह वक्त की नब्ज पर हाथ रखकर अभी से नहीं, अपनी स्थापना के समय से ही चल रहा है। जब उसने देखा कि वैचारिक रूप से गांधी को पराजित करना नामुमकिन है तो उसने गांधी को ही गले लगाने का फैसला कर लिया। 2 अक्टूबर 2019 को #मोहन_भागवत का गांधी जी को लेकर किया गया ट्वीट इसी कड़ी की पहली पेशकश थी। आने वाले समय में आप देखेंगे कि संघ का गांधी राग बढ़ता ही जाएगा। यह एक तरह से गांधी के #संघीकरण अभियान की शुरूआत है। जो समूह और उसकी विचारधारा के मानने वाले गांधी जी की शहादत को गांधी वध कहते रहे हों। जो समूह या उसकी विचारधारा को मानने वाले लोग गांधी की हत्या से सीधे जुड़े रहे हों, उनके अनुयायियों का उस हत्या के लिए बिना माफ़ी माँगे गांधी प्रेम दिखाना बहुत ही दिलचस्प मंज़र है।

मोहन भागवत ने 17 फरवरी को जिस कार्यक्रम में गांधी जी को लेकर बड़ी-बड़ी बातें कहीं, वह एक पुस्तक विमोचन का कार्यक्रम था। आमतौर पर तमाम पुस्तकों के विमोचन चुपचाप हो जाते हैं और उनका पता भी नहीं चलता। मोहन भागवत ने संघ के विचारों को गांधी से जोड़कर बनाई गई (लिखी गई) पुस्तक विमोचन में कई नई बातें भी कह डालीं। जिस पुस्तक का उन्होंने विमोचन किया, उसका नाम है - गांधी को समझने का यही उचित समय। इस किताब को राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान परिषद (एनसीईआरटी) के पूर्व निदेशक जगमोहन सिंह राजपूत ने लिखा है। राजपूत पुराने संघी हैं और एनसीईआरटी में रहते हुए उन्होंने संघ की नीतियों को ही आगे बढ़ाया था। 

खैर, राजपूत साहब की पुस्तक का विमोचन करते हुए मोहन भागवत ने जो बातें कहीं, उनमें से कुछ लाइनों को मैं दोहराता हूं। उन्होंने कहा - गांधी जी बैरिस्टर बनकर आये, पैसा कमा सकते थे। उनको अपने #सनातनी_हिन्दू होने पर कभी शर्म महसूस नहीं हुई थी। गांधी ने कहा था कि वो सनातनी हिन्दू हैं, लेकिन दूसरे #धर्म का भी सम्मान किया। उनके भाषण में आगे जो बातें कहीं गईं, उस पर जरा ज्यादा तवज्जो देने की जरूरत है। 

भागवत ने कहा #हेडगेवार जी ने कहा था गांधीजी के जीवन का अनुसरण करना चाहिये, सिर्फ स्मरण नहीं। ...शिक्षा के जरिए हमारा दिमाग बिगाड़ दिया गया। एक समय था जब हमारी चीजों को गलत मानकर चला जाता था, लेकिन अब स्थिति बदल रही है। शिक्षा में ये नहीं बताया जाना चाहिये कि ये हमारे पक्ष का है और ये विपक्ष का। शिक्षा में सत्यपरकता होनी चाहिए। उन्होंने कहा आज नहीं तो 20 साल बाद हम बापू को कैसे कह सकते हैं कि बापू आप चले गये थे लेकिन अब आप आकर रह सकते हैं। परिस्थितियां बदलेंगी, मुझे उम्मीद है की सारा रंग एक होगा। उन्होंने कहा कि गांधीजी के आन्दोलन में गड़बड़ी होती थी तो वह प्रायश्चित करते थे। आज के आन्दोलन में कोई प्रायश्चित करने वाला नहीं है। लेकिन आज के आन्दोलन में जो पीटता है या जो जेल जाता है वही प्रायश्चित करता है। जो कराता है वो हारता है या जीतता है।

मोहन भागवत की इस लाइन पर गौर कीजिए - परिस्थितियां बदलेंगी, मुझे उम्मीद है कि सारा रंग एक होगा। ....भागवत इस लाइन को बोलकर क्या कहना चाहते थे, इसे उन्होंने विस्तार से नहीं समझाया लेकिन उन्होंने इसे गांधी से इस संदर्भ के साथ जोड़ा कि गांधी के साथ सारा भारत एक था, उसका एक रंग था। लेकिन अब जिन परिस्थितियों को वह बदलने की उम्मीद कर रहे हैं और उसके एक रंग की बात वह कह रहे हैं, उसका अंदाजा लगाया जा सकता है। भागवत शायद यह कहना चाहते हैं कि जिस एक रंग की भगवा ध्वजा को वो लोग अपनी शाखा में और नागपुर में प्रणाम करते हैं, शायद उस एक रंग से पूरे भारत को यानी गांधी के भारत को रंगने का सपना संघ प्रमुख देख रहे हैं। अब उनकी अंतिम लाइन पढ़िए। भागवत कहना चाह रहे हैं कि जो लोग आंदोलन कराते हैं, वे या तो हारते हैं या जीतते हैं। जो पीटता है या जो जेल जाता है वह प्रायश्चित यानी पश्चताप यानी अफसोस करता है। 

यह बहुत बड़ी बात है। वह साफ-साफ कह रहे हैं कि जो आंदोलन कराता है वह या तो जीतता है या हारता है। यानी संघ अपने समेत हर आंदोलन को हार-जीत के रूप में देखता है। ...और कोई क्यों हारना चाहेगा, वो भी तब जब सरकार अपनी हो। मतलब स्पष्ट है कि देश में चलने वाले किसी भी तरह के आंदोलन को संघ इसी नजर से देखता है। जो उसके अनुकूल है या उसकी विचारधारा से प्रस्फुटित है, उनमें वह जीत तलाशता है। #शाहीनबाग सरीखे या आरक्षण बचाओ सरीखे #दलितों_के_आंदोलन को वह हार के रूप में देखता है।

...तो मोहन भागवत की बात का एक विश्लेषण यह भी बनता है कि 1925 में बने इस संगठन ने गांधी के आंदोलन को हमेशा उसी नजर से देखा, जिसकी टीस अब भी संघ के #साहित्य में, उनके #सरसंघचालकों के आचरण से सामने आती है। यानी #गांधीवाद के सामने या गांधी के आंदोलन के सामने संघ ने अपनी हार स्वीकार कर ली है। इसीलिए अब वो #गांधी_का_संघीकरण चाहते हैं, जिसकी शुरुआत मोहन भागवत ने की है और #संघ_की_विचारधारा का शिक्षा के क्षेत्र में प्रचार करने वाले जगमोहन सिंह राजपूत ने उस शुरुआत का पहला चरण शुरू किया है। 

गांधी के संघीकरण के लिए #आरएसएस की योजनाओं का मुझे अंदाजा नहीं है लेकिन इतना तो अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि आने वाले समय में इससे जुड़े संघ के तमाम प्रचार साहित्य आप लोगों के सामने जरूर आ जाएंगे। सीधा सा देसी फ़र्म्युला है, जिसे पा नहीं सकते, उसके साथ या उससे इनता घुल-मिल जाओ की बाकी जनता उसे या तुम्हें उसी का हिस्सा समझने लगे या मानने लगे। गांधी के संघीकरण का फायदा नई पीढ़ी के बाद उसकी अगली पीढ़ी से संघ को होगा, जब वह मानने लगेगी कि गांधी जी ही संघ थे या संघ ही गांधीमय था।

#इतिहास की एक छोटी सी घटना बताकर अपने उस तर्क को साबित करना चाहता हूं। मुझे कई बार शिक्षण संस्थाओं में जाने और वहां के शिक्षकों और छात्र-छात्राओं से बातचीत का मौका मिलता है। जब मैं उन्हें बताता हूं कि अपने समय में भारत की आजादी के आंदोलन में शामिल रहे और बाद में पाकिस्तान के संस्थापक बने मोहम्मद अली #जिन्ना ने #हिंदू_महासभा के साथ मिलकर सरकार चलाई थी तो उन्हें यकीन नहीं होता। वह जिन्ना और हिंदू महासभा के गठजोड़ को पचा नहीं पाते। 

इसी तरह जब मैं उन्हें बताता हूं कि 1942 के #गांधी_जी_के_असहयोग_आंदोलन में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अंग्रेजों का साथ दिया तो इस पीढ़ी के युवा चौंककर मेरा चेहरा पढ़ने की कोशिश करते हैं। लेकिन जब मैं उन्हें सावरकर की किताब का उल्लेख कर उनमें से ही इस सत्य को तलाशने के लिए कहता हूं तो ऐसा प्रयास करने का आश्वासन वे लोग नहीं दे पाते हैं। #इंटरनेट ने हिंदू महासभा और जिन्ना के गठजोड़ को तलाशने का काम तो और भी आसान कर दिया है। इसे तलाश कर कोई भी देख सकता है- ( वीडी सावरकर, समग्र सावरकर वांग्मयः हिंदू राष्ट्र दर्शन, अंक-6, महाराष्ट्र प्रांतिकहिंदूसभा, पूना, 1963, पेजः 479-480) सावरकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी की हिंदू महासभा एक साल तक जिन्ना की पार्टी के साथ गठबंधन सरकार चलाते रहे, इस तथ्य को संघ ने आजतक खारिज नहीं किया है। जिन्ना और हिंदू महासभा ही सबसे पहले दो राष्ट्र यानी हिंदुस्तान-पाकिस्तान की अवधारणा लेकर आए और उस पर अंग्रेजों के साथ चर्चा की।

गांधी के संघीकरण की इन कोशिशों को कैसे रोका जाएगा, यह सोचना #गांधीवादी_सिद्धांतों में विश्वास करने वाले सभी राजनीतिक दलों और अन्य सामाजिक संगठनों की जिम्मेदारी है। लेकिन सिर्फ गांधी ही नहीं संघ ने गांधी की तर्ज पर शहीद-ए-आजम भगत सिंह और आंबेडकर को भी आत्मसात करना चाहा लेकिन वो कोशिश नाकाम रही। क्योंकि ज्यों ही कोई भगत सिंह के विचारो को पढ़ने लगता है तो फिर उसके सामने संघ की बेइमानियां सामने नजर आने लगती हैं। इसी तरह की कोशिश सुभाष चंद्र बोस के साथ भी संघ ने की। संघ का यह पूरा प्रयास इन ऐतिहासिक छवियों को अपने संगठन या #हिंदुत्ववाद से जोड़ने की वजह वही है कि उसके पास अपने बिना कोई प्रश्नचिह्न वाले प्रतीक नहीं हैं। अगर वो गांधी का संघीकरण कर ले गया तो वह फिर से भगत सिंह, बोस और आंबेडकर पर जुटेंगे। पिछले कई वर्षों में उन्होंने इन ऐतिहासिक महापुरूषों की जयंती पर कार्यक्रम आयोजित कर अपनी मंशा बता भी दी है लेकिन गांधी के संघीकरण पर ज्यादा ज़ोर है।




































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