कहानी ...इंसानी पाबंदियां

-इस कहानी को कई पत्रिकाओं में छपवाने की कोशिश की गई। लेकिन किसी भी पत्रिका ने कश्मीर पर आधारित इस कहानी को छापने में दिलचस्पी नहीं ली। इसलिए यह कहानी हिंदीवाणी ब्ल़़ॉग पर पेश है...

सर्दियां बीत रही हैं। लेकिन  इस बार यह आम सर्दी का मौसम नहीं है। ज़हरीली आब-ओ-हवा फ़िज़ा में चारों तरफ़ है। नफ़रतों का तूफ़ान पूरी तरह सब कुछ रौंदने पर आमादा है। कुदरत के तूफान को कैटरीना, हरिकेन, बुलबुल जैसे नाम नसीब हैं लेकिन इंसानी नफरत के तूफान को कोई नाम देने को तैयार नहीं है। नफरत का तूफान जो कभी अपने हरे, नीले, पीले, भगवा, बसंती जैसे रंगों से पहचाना जाता था, अब वह ‘इंसाफ’ के साथ मिलकर इंद्रधनुष बना रहा है। कहना मुश्किल है कि नफरतों के तूफान का इंसाफ के इंद्रधनुष से क्या रिश्ता है लेकिन फिलहाल दोनों एक दूसरे के पूरक बने हुए हैं।

हर साल नवंबर का पहला हफ़्ता बीतते बीतते हमारे घर की डोर बेल ज़ोर से बजती थी और दरवाज़ा खोलने पर गेट पर कपड़ों का गठ्ठर लादे और हाथ में काग़ज़ की स्लिप लिए शफ़ीक़ #कश्मीरी नज़र आता था। लेकिन पूरा नवंबर खत्म हो गया। दिसंबर आकर चला गया लेकिन शफीक का दूर-दूर तक अता-पता नहीं था। शफीक का हर सर्दी में आने का सालों पुराना सिलसिला था। दिल्ली एनसीआर की तमाम सोसाइटियों में भले ही कुछ सफ़ेदपोश चोर, स्मगलर रहते हों या खादी की आड़ में चंद जरायमखोर रहते हों, लेकिन शफ़ीक़ जैसों की एंट्री इन सोसायटीज में तभी हो सकती है जब सोसायटी में कोई लिखकर देगा कि वो शफ़ीक़ को जानता है और उसके आने से किसी भी तरह के ‘आतंकवाद’ का ख़तरा नहीं है। शफ़ीक़ की पर्ची पर साइन करना मेरी ज़िम्मेदारी बन चुकी थी।

साल दर साल से यह सिलसिला चल रहा था। हालांकि सोसायटी के मुच्छड़ गार्ड को उसकी एंट्री सख्स नापसंद थी। वह कहता था... साहब, आप तो पढ़े-लिखे हो, क्या हम लोग इन #कश्मीरियों_पर_भरोसा_कर_सकते_हैं? आप जो कर रहे हो तो यह बहुत बड़ा खतरा है। हालांकि आरडब्ल्यूए वाले उस गार्ड को वेतन के नाम पर सात हजार रुपये देते थे। जब-तब वह पानी की बोतल भरने मेरे घर पर आता था तो कम सैलरी और लंबी ड्यूटी के बहाने अपने शोषण का जिक्र कर ही देता था। लेकिन सोसायटी में किसी #कश्मीरी_फेरीवाले की एंट्री को लेकर वह सब कुछ भूलकर रा#ष्ट्रवादी हो जाता था। आरडब्ल्यूए के शर्मा जी भी परेशान थे। वह अक्सर कह ही देते थे- अगर आप स्लिप पर साइन न करो तो मैं इन #देशद्रोहियों को घुसने नहीं दूं। यानि एक तरह से #आरडब्ल्यूए मुझ पर एहसान कर रही थी और उस कश्मीरी का अपना माल बेचने के लिए आना-जाना मेरे रहमोकरम पर था।

#कश्मीर से शाल, अन्य गर्म कपड़े और मेवे (ड्राई फ्रूट्स) बेचने वाले कश्मीरी नवंबर के पहले हफ़्ते में दिल्ली आते हैं और पूरे एनसीआर में फैल जाते हैं।...इस बार एक के भी दर्शन नहीं हुए हैं। ....हमारे घर के लोग चाहे कुछ ख़रीदें या ना ख़रीदें...रैनावारी का शफ़ीक़ बिना गेट खड़काये और चाय पीकर जाने की ज़िद के साथ लौटता नहीं था।...मेरे पास शफ़ीक़ का मोबाइल नंबर भी नहीं है जो उससे पूछ सकूं कि वो इस बार आया या नहीं। हर बार सोचता था कि शफीक का मोबाइल नंबर लेकर रखूंगा लेकिन यह सोचा ही नहीं था कि एक दिन ऐसा भी आयेगा, जब वह और उसके साथी आना बंद कर देंगे। मुझे याद आया कि शफीक अक्सर पुरानी दिल्ली के एक होटल का जिक्र करता, जहां कपड़ा बेचने वाले सारे कश्मीरी ठहरते थे और फिर वहां से आसपास के शहरों में सुबह ही कपड़ा बेचने चले जाते थे। वहां ये लोग देर रात लौटते थे और मिलकर खाना बनाते और खाते थे। मैंने सोचा कि क्यों न किसी दिन दफ्तर से थोड़ा पहले निकलकर उस होटल में जाकर पता तो करूं कि आखिर इस बार कपड़ा बेचने सारे कश्मीरी ही नहीं आये या सिर्फ शफीक ही नहीं आया।

बल्लीमारान की सर्पीली गलियों में किसी तरह तलाशते हुए उस होटल पर पहुंचा तो रिसेप्शन पर एक साहब उर्दू का अखबार बांचते नजर आए। मैंने पूछा - शफीक आया। उसका जवाब था - कौन शफीक। मैंने कहा- अरे वही शफीक जो #कश्मीर_से_कपड़े_बेचने_सर्दियों_में_आता_था। उसने कहा - शफीक तो क्या, उसके खानदान का भी कोई कश्मीरी इस बार नहीं आया। ...लगता है आप खबरों से वाबस्ता नहीं हैं, वहां के हालात आप नहीं जानते, किस दुनिया में रहते हैं। मैंने कहा, भाई हालात से तो वाकिफ हूं लेकिन काम धंधा तो चलता ही रहेगा ना। उसने बिफरते हुए कहा - जब हालात खराब हैं तो कैसा काम-कैसा धंधा। इस बार तो हमने पहले से ही सोच लिया था कि कोई कश्मीरी आयेगा तो उसको कमरा भी नहीं देंगे। ...कौन #दिल्ली_पुलिस की मुसीबत झेले।...अब बिफरने की बारी मेरी थी। मैंने कहा- अरे, इस तरह सोचोगे तो तुम्हारे #होटल में आयेगा कौन। तुम्हारा भी #बिजनेस उनके आने से जुड़ा है। फिर वो लोग कपड़ा बेचने आते हैं। उन्हें बाकी बातों से क्या मतलब। मैं उसे अपनी तरह से अब समझाने की कोशिश करने लगा।





शायद उसे मेरी अक्ल पर या बात पर तरस आया। उसने कहा - पुलिस के एक भी उलझाने और बदतमीजी वाले सवाल का सामना आप नहीं कर पायेंगे। आप क्या समझते हैं कि यह बात मुझे मालूम न होगी कि जब ग्राहक आएगा नहीं तो हम कमायेंगे कैसे। लेकिन साहब, दो रोटी कम खा लेंगे, लेकिन पुलिस की बदमाशियां झेल नहीं सकते। और अब तो अयोध्या पर फैसला भी आ चुका है। आप जरा सोचिए कि इतनी दूर से ऐसे माहौल में कौन खुद की जान फंसाने आएगा। कब दंगा हो जाए, कहां से शुरू हो जाए, कोई नहीं जानता। जब कुछ लोग दंगे पर आमादा हों तो ऐसे में हमारा आपका खामोश रहना ही ज्यादा बेहतर है। जान बची तो #अयोध्या_भी_हमारी_और_कश्मीर_भी_हमारा। अब तक चार बार पुलिस आ चुकी है सिर्फ यह पूछने की कि कोई कश्मीरी तुम्हारे होटल में ठहरा तो नहीं है। पुलिस वाले खुद बता रहे थे कि इस बार कश्मीरी शायद ही आएं। पुलिस वालों को सब पता होता है। आज ही मैं पढ़ रहा था कि वहां के सारे नेता एक महीने से नजरबंद हैं। अब सोचिए कि जब वहां के बड़े-बड़े नेता नजरबंद हैं तो बेचारे शफीक #कश्मीरी_की_क्या_बिसात।

मैं उसकी बात समझ गया। मेरे दिमाग में उस #उजड़े_हुए_कश्मीर_की_तस्वीर घूमने लगी, जहां अब #चिनार_के_दरख्त भी कराह रहे हैं। #भारतीय_मीडिया तो नहीं लेकिन #विदेशी_मीडिया बता रहा है कि 5 अगस्त के बाद से कश्मीर में हर घर से कोई न कोई जेल में है या गायब है, ऐसे में उस होटल वाले की बात वाजिब है कि किसे काम धंधे की पड़ी है। मुझे लगा कि उससे बात करना अब फिजूल है। जब वह इतनी बातें कर रहा है तो भला मुझे शफीक का #मोबाइल नंबर ही क्यों देगा। लेकिन शफीक को लेकर मेरी बेचैनी बढ़ गई।
मैं लौट तो पड़ा, लेकिन शफीक का चेहरा नजरों में घूमने लगा। कुछ चेहरे आप लाख भूलना चाहें, वो बार-बार आपके जेहन में मंडराएंगे। अगर बहुत भावुक और #संवेदनशील_इंसान हैं तो ऐसे चेहरे आपका चैन तक छीन सकते हैं।

शफीक अपनी #जिंदगी_की_कहानी_टुकड़ों_में सुनाता था।...इंजीनियरिंग करने के बाद उसके वालिद ने सोचा था कि शफीक को कहीं न कहीं कोई सरकारी नौकरी कश्मीर में मिल ही जायेगी। शफीक बताता था... सरकारी नौकरी की कोशिश करते-करते मैं कब 30 साल का हो गया, पता ही नहीं चला। वालिद की शिकारे से बहुत ज्यादा कमाई नहीं थी। लगातार हालात खराब होने पर शिकारे पर लोग पहले के मुकाबले कम आने लगे थे। वालिद मुंह से कुछ कहते नहीं थे लेकिन वह चाहते थे कि अब मैं भी घर की जिम्मेदारी संभालूं। फिर मेरे एक दोस्त ने एक दिन कपड़े का गठ्ठर संभाला और ट्रक में बैठकर #दिल्ली चला गया। सर्दियां खत्म होने पर वह लौटा और उसने बताया कि यह धंधा खूब चल रहा है। लोग वहां असली #कश्मीरी_कपड़ों_के_दीवाने हैं। अब तू #नौकरी-वौकरी क्या करेगा, यहां उधारी पर कपड़ा मिलेगा, अगली सर्दियों में चलकर मेरे साथ वहां बेच। अच्छी कमाई हो जाएगी। लगे हाथ उसने मुझे #मार्केटिंग टिप भी दे दी - हर बार कुछ ग्राहकों की पहचान कर उनके घर जाओ, जो ग्राहक बार-बार तुमसे खरीदने लगे, उसके लिए अगली बार जाते हुए मेवे का तोहफा ले जाओ। इस तरह ग्राहकों का एक बड़ा बेस #दिल्ली_एनसीआर में खड़ा हो जाएगा...और तू आराम से कमाना। नौकरी-चाकरी में क्या रखा है। उससे ज्यादा की कमाई एक सीजन में हो जाती है। फिर यहां भी दिल्ली से सामान लाकर बेचना।

शरीफ के मेवे के तोहफों ने हमें उसका पक्का ग्राहक बना लिया। शफीक अपने दोस्त की मार्केंटिंग टिप्स को कामयाब में जीजान से जुटा था। घर में चाहे जितने का कपड़ा खरीदा जाये या न खरीदा जाये, सर्दी आते ही शफीक का मेवे का तोहफा जरूर आ जाता था। बादाम और अखरोट बाजार में या आनलाइन बहुत ऊंचे दामों पर मिलता था। शफीक इन मेवों को हमें इतनी खुशी से देता था कि मानों हम लोग उसके बहुत खास ग्राहक हों। पिछले कुछ साल से यह भी हो चला था कि हम लोग शफीक को पेशगी रकम अलग से देकर कहते कि अगली बार ज्यादा मेवे चाहिए तो वह सुखाई गई खुबानी भी लेकर आता था।

वह कभी-कभी बहुत कुरेदने पर #लहूलुहान_कश्मीर पर भी बात करता था। उसके पास तर्कों की कमी नहीं थी। वह कहता था...कश्मीर एक बनाई गई समस्या है। लोग अपने घरों में अपने अपने लड़के-लड़की पर हुक्म चला नहीं पाते। लड़के-लड़की अपनी आजादी मांगते हैं, वे अपने मनपसंद दोस्त बनाना चाहते हैं, वे मनपसंद जगह शादी करना चाहते हैं, वे अपनी जिंदगी जीना चाहते हैं। आपको कश्मीर को उन्हीं बच्चों जैसा समझना होगा। आप यकीन मानिये हर कश्मीरी जानता है कि भारत के साथ रहने में उन्हें ज्यादा फायदा है लेकिन आपको उन्हें आजादी तो देनी ही पड़ेगी। जब वो आपसे अलग होकर जीना सीखेंगे तब उन्हें पता चलेगा कि मां-बाप जो समझाते थे, उसमें कितना फायदा-नुकसान है। लेकिन अगर आप जोर-जबरदस्ती करेंगे तो कोई भी बच्चा आपकी बात नहीं सुनेगा। समझदार मां-बाप को होना पड़ेगा, बच्चों को नहीं।...फिर ये बताइये कि इतनी भारी तादाद में फौज लगाकर आपने कश्मीर को काबू किया हुआ है। उधर, #पाकिस्तान ने भी अपने कश्मीर में ऐसा ही किया हुआ है। आप ही बताइये कि दोनों तरफ #फौज पर जो पैसा खर्च होता है, आखिर वो किसका पैसा है। साहब, हकीकत ये है कि दोनों तरफ की फौज और उसके अफसर जनता के पैसे से, टैक्स के पैसे से मलाई काट रहे हैं। अगर कोई समस्या खत्म हो जायेगी तो फिर फौज और पुलिस की जरूरत कहां पड़ेगी।...मैं देखता था कि शफीक के तर्कों को मैं जितना ही काटने की कोशिश करता, वह उतना ही जोरदार तर्क पेश कर देता।...लेकिन उसके खुलूस में कोई कमी नहीं आई। मेरे #भारत_समर्थक तर्कों के बावजूद हमारे घर उसका आना-जाना बना रहा और मेवों की आमद भी उसी मोहब्बत के साथ होती रही।





मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था कि आखिर शफीक का पता लगे तो कैसे लगे। तभी मुझे वाहिद का ख्याल आया। वाहिद कश्मीर के थे और मेरी ही कंपनी के दूसरे विभाग में काम करते थे। अक्सर कैंटीन में या #मेट्रो_में_मुलाकात हो जाती थी। मैंने सोचा कि क्यों न वाहिद की मदद लेकर शफीक का पता लगाया जाए। अगले दिन दफ्तर पहुंचते ही मैं वाहिद को उनके विभाग से कॉफी पिलाने के बहाने कैंटीन तक ले आया। वाहिद ने शफीक को लेकर मेरे सवाल सुने तो वह एक मिनट तक मुझे देखते रहे। वाहिद ने कहा - आपका दर्द समझ सकता हूं लेकिन आप बताइए कि जहां #फोन-#इंटरनेट सब कुछ बंद है, वहां आप शफीक को कैसे तलाश कर पाएंगे। मेरी बीवी अपने बूढ़े वालदैन (माता-पिता) से बात नहीं कर पाने की वजह से डिप्रेशन में है। सर्दियां शुरू हो चुकी हैं। उनकी कोई खबर नहीं है। वैसे भी वो लोग गांव में रहते हैं, जहां से किसी भी खबर का आना-जाना नामुमकिन है। #श्रीनगर के लिए फ्लाइट की टिकटें इतनी महंगी हैं कि सोचना पड़ता है। #श्रीनगर_एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही अनगिनत आंखें आपको या तो घूरने लगती हैं या सवाल करने लगती हैं। आप रैनावारी के जिस शफीक की बात कर रहे हैं, वो तो फिर भी ठीक ही होगा, क्योंकि वह श्रीनगर में ही आता है लेकिन जो व्यापारी गांवों और कस्बों से माल लेकर आते हैं, उनका सोचिए। वो ज्यादा दिक्कत में हैं। आप कितने शफीक को याद रखेंगे।...मुझे भी शफीक ही समझिए। मैं बस एक कंफर्ट जोन (सुविधाजनक क्षेत्र) में बैठा शफीक हूं। ...कोई और शफीक आएगा, वो भी आपके लिए मेवे लाएगा।...अगले शफीक का इंतजार कीजिए, इस शफीक को भूल जाइए। वाहिद ने एक झटके में कॉफी खत्म की और उठकर चला गया। मैं समझ गया कि शफीक को तलाशना एक नामुमकिन सा काम है।

वाहिद की बातों ने मुझे झिंझोड़ दिया था। लेकिन शफीक नजरों से ओझल नहीं हो पा रहा था। एक हफ्ता इसी तरह गुजर गया। मुझे किसी काम की वजह से गुड़गांव जाना पड़ा। अभी मैं केंद्रीय विहार से सड़क पार कर ही रहा था तो देखा एक चाय की दुकान पर शफीक मियां चाय की चुस्की ले रहे थे और बगल में उनका कपड़ों का गट्ठर रखा था। मैंने जोर से शफीक की आवाज लगाई तो वह भी चौंक कर खड़ा हो गया। मैंने उसे गले लगाया, उसकी खुशी उसके चेहरे पर दिखाई दी। मैंने उलहना दिया- यार, अब हम लोग भी पराये हो गए। तुम आए हुए हो और मैं तुम्हारी तलाश में कहां-कहां नहीं भटका, तमाम लोगों से तुम्हारे बारे में दरियाफ्त किया।

शफीक ने नजरें नीचे करते हुए जवाब दिया - साहब जब सारा #माहौल_आपके_खिलाफ हो जाए तो आप क्या करेंगे। मैं आपकी सोसायटी के गेट तक पहुंचा, लेकिन गार्ड ने सख्ती से मना कर दिया। उसने कहा कि आरडब्ल्यूए ने #कश्मीरियों_के_अंदर_जाने_पर_पाबंदी लगा दी है। साहब, हम #कश्मीर_में_पाबंदी छोड़कर आए थे और यहां #आजाद_भारत में हम पर उस गार्ड ने नई #पाबंदी_का_हुक्मनामा जारी कर दिया। मैं उससे मिन्नतें करता रहा कि आपसे बात करा दे, लेकिन वो माना ही नहीं। उसने आपका मोबाइल नंबर तक नहीं दिया। मैं क्या करता लौट पड़ा। फिर दूसरी सोसायटियों में गया तो वहां भी इसी पाबंदी का सामना करना पड़ा। वहां भी हमें अंदर घुसने नहीं दिया गया। ...और बल्लीमारान के उस होटल में क्यों नहीं आए...मैंने पूछा। ...अरे, साहब उनकी नजरें भी बदल गईं। वो तो हमारी बिरादरी से हैं लेकिन उन्होंने इस बार किसी भी #कश्मीरी_को_होटल_नहीं_दिया। वो लोग कहने लगे कि इस बार रिस्क है। कमरा नहीं दे सकते। थकहार कर हम लोग फिर घिटोरनी गांव आ गए। वहां गांव में हमें एक बुजुर्ग ने अपनी जिम्मेदारी पर कमरा दिलाया। हम 14 लोग वहीं ठहरे हुए हैं। लेकिन इस बार मामला ठंडा है। कई सोसायटी में घुसने को मिल जाता है लेकिन बहुत सारी जगह पाबंदी का सामना करना पड़ता है। ऐसा लगता है कि #भारत_सरकार ने दिल्ली एनसीआर की सोसायटियों में भी हम #कश्मीरियों_पर_पाबंदी लगा दी है। ...शफीक चुप नहीं हो रहा था, जैसे उसे बहुत सारे गिले शिकवे हों और वो उन्हें बयान किए जा रहा था। मैंने उसे पेशकश की चलो मेरे साथ, मेरी सोसायटी के गेट पर, देखते हैं कौन तुमको वहां घुसने नहीं देता है। ...




उसने मुझे देखे बिना अपना गठ्ठर खोलते हुए जवाब दिया- छोड़ों साहब, क्यों किसी के लिए दुश्मनी मोल लेते हो। जब हालात सुधरेंगे तो शायद इंसान भी हम पर से पाबंदिया हटा ले। अभी तो #इंसान_और_इंसानियत दोनों मर चुके हैं। फिर उसने मुझे एक पैकेट थमाया, उसमें अखरोट थे। ...यह तोहफा रह ही जाता, अगर आप आज नहीं मिले होते।...मैं स्तब्ध होकर उसके चेहरे को देखे जा रहा था, उसकी आंखें भीगी हुई थीं...फिर उसने गट्ठर अपने पीठ पर लादा और केंद्रीय विहार की मुख्य सड़क की तरफ मुड़ गया, मैं उसे जाता हुआ देखता रहा।...

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