इजराइल-हमास युद्धः फिलिस्तीनियों के नरसंहार में नजरिया तलाशती दुनिया

Israel-Hamas war: world finds perspective in genocide of Palestinians


 

 

-यूसुफ किरमानी

 


इस लेख पर आगे बढ़ने से पहले यह अपडेट जरूरी है कि यह लेख समयांतर पत्रिका के नवंबर 2023 अंक में छप चुका है।  गाजा युद्ध बीच में 6 दिन के लिए रुका। लेकिन 1 दिसंबर 2023 से इजराइल ने गाजा पर फिर से बमबारी शुरू कर दी है। अब आगे मूल लेख पढ़िए।  


इजराइल-हमास युद्ध आप किस नजरिए से देखना चाहते हैं। क्योंकि पश्चिमी मीडिया के प्रभाव ने आपको कोई न कोई नजरिया दे ही दिया होगा। क्या पता आप हमास की पहल को इस पूरे युद्ध का जिम्मेदार मानते हों। क्या पता आप उन साजिशों को जिम्मेदार मानते हों कि इजराइल बेचारे देश को मिटाने की कोशिश 56 मुस्लिम देश कर रहे हैं। कुल मिलाकर इस युद्ध पर आपकी राय को पश्चिमी देश और उनका मीडिया नियंत्रित कर रहा है। आप में से बहुत कम लोग होंगे जो यह मान रहे होंगे कि फिलिस्तीन के लोग जुल्म कब तक और  कहां तक बर्दाश्त करते। उनके पास खोने के लिए क्या थाजो इस युद्ध में उनसे छीन लिया जाएगा। आज शव गिने जा रहे हैंमलबों में दबे लोग खोजे जा रहे हैं। लेकिन पिछले 70 वर्षों में फिलिस्तीन तिल-तिल कर मरता रहा है। 70 वर्षों से अब तक इजराइली पुलिस की टुकड़ी हर दिन गाजा में कहीं भी पहुंचती थीघर खाली कराती या सामान फेंक देती और अगले दिन कोई इजराइली वहां कब्जा ले लेता। इजराइली इन्हें सेटलर्स यानी बसने वाले कहते हैं। पिछले तीन महीने से गाजा पट्टी में इजराइली हुकूमत का जुल्म सारी हदें पार कर गया था। विश्व मीडिया में फिलिस्तीन की खबरें बंद हो गईं। इजराइल के जुल्म-सितम को सामान्य मान लिया गया। 

 


 


अगस्त महीने में समयांतर के संपादक पंकज बिष्ट जी ने मुझसे फोन पर आग्रह कियाफिलिस्तीन में जो हो रहा हैउस पर आंखें नहीं मूंद सकतेइसलिए इस बार आप फिलिस्तीन पर लिखिए। मैंने उनके कहे को टाल दिया। मेरी नजर में उस समय भारतीय राजनीति के घटनाक्रम ज्यादा महत्वपूर्ण थे। उन्हें दर्ज किया जाना जरूरी था। लेकिन 7 अक्टूबर को मैं बहुत पछताया। चूक हो गई। पंकज बिष्ट जी ने अगस्त में फिलिस्तीन की जो नब्ज टटोली थीवो 7 अक्टूबर को हमास के हमले से सामने आ गई। हमास और फिलिस्तीन के सब्र का पैमाना छलक गया।  7 अक्टूबर को हमास ने इजराइल पर पांच हजार रॉकेट दागे और इजराइल में घुसकर 1400 लोगों को मार डाला। इस हत्या को कौन वाजिब ठहरा सकाता है। लेकिन इसके पीछे 70 साल से जो कहानी चल रही थीउसे कोई याद नहीं करना चाहता। 7 अक्टूबर के हमले के लिए हमास की निन्दा होनी ही थी। लेकिन पश्चिमी देशों और खासकर अमेरिकाब्रिटेन और इजराइल ने इसे अवसर के रूप में लिया। यह अवसर थामध्य पूर्व (मिडिल ईस्ट) को कमजोर करना। ईरान के बढ़ते प्रभाव को रोकना। इजराइल ने 7 अक्टूबर को ही युद्ध का ऐलान कर दिया। सोचता हूं पंकज जी का आग्रह मानकर अगर अगस्त में फिलिस्तीन पर अपनी रिपोर्ट लिख देता तो आज हमास के हमले को जायज ठहराने के तर्क नहीं देने पड़ते। समयांतर शायद भारत की पहली दस्तावेजी पत्रिका होती जो तीन महीने पहले ही गाजा पट्टी में छलक रहे सब्र के पैमाने को बता देती। अगस्त से शुरू हुए इजराइल के जुल्म-ओ-सितम को कलमबंद करके आज फिलिस्तीन के साथ खड़े होने को सही ठहराने की कोशिश करती।   

 






युद्ध में मौत का जवाब मौत ही होता है। लेकिन कहां तककब तक?  इजराइल की बमबारी में गाजा पट्टी में मारे गए लोगों की मौत को इजराइल इसी आधार पर जायज ठहरा रहा है। अमेरिकाब्रिटेनफ्रांसजर्मनी और इन सब के पिछलग्गू देश जायज ठहरा रहे हैं। अभी तक इजराइल का हौसला बढ़ाने के लिए जर्मनी के चांसलर ओलाफ स्कोल्ज़अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन. ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनाकफ्रांस के राष्ट्रपति एमानुएल मैक्रां तेल अवीव पहुंचे और कहा कि वे इजराइल के साथ खड़े हैं। ये चार बड़े देश दुनिया के चौधरी बने हुए हैं। इन सभी देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने हमास को जड़ से मिटाने का संकल्प दोहराया गया। हमास को खत्म करने का मतलब फिलिस्तीन को दुनिया के नक्शे से मिटाना। ताकि नए वर्ल्ड ऑर्डर के रास्ते में आगे कोई अरब देश रुकावट न बने। इन देशों ने बड़ी निर्लज्जता से होलोकास्ट को याद कियाजिसमें द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हिटलर ने जर्मनी में रहने वाले यहूदियों का कत्ल-ए-आम कराया था। इजराइल और वहां के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के मौजूदा युद्ध अपराध को छिपाने के लिए होलोकास्ट में यहूदियों के नरसंहार को याद कराया जा रहा है लेकिन 70 साल से फिलिस्तीन में हो रहे नरसंहार को कोई नाम नहीं दिया गया। फिलिस्तीन के तमाम इलाकों में कई लाख सेटलर्स बसा दिए गएगाजा पट्टीवेस्ट बैंकरामल्लाहखान यूनिसअल अक्सा मसजिद के आसपासपूर्वी जेरूसलम में इजराइली कब्जे को किसी नए होलोकास्ट से नहीं जोड़ा गया। इन इलाकों में फिलिस्तीनी लोगों की पीढ़ियां इजराइल से लड़ती हुईं खत्म हो गईं लेकिन उनके नरसंहार को कोई नाम नहीं मिल सका। गाजा में जो कुछ हो रहा हैवो सिर्फ आम नरसंहार नहीं बल्कि जातीय नरसंहार हैं। यानी किसी मजहब के खास समुदाय को खात्मे के लिए निशाना बनाया जा रहा हो। जातीय नरसंहार में मानसिकता एक जैसी है। जातीय नरसंहार में मानसिकता ही काम करती है। जर्मनी में हिटलर की नाजी मानसिकता जिस तरह यहूदियों का नरसंहार कर रही थीउसी मानसिकता के साथ आज इजराइल फिलिस्तीनियों का खात्मा कर रहा है। लेकिन दुनिया इजराइल के जुल्म ओ सितम को जातीय नरसंहार नहीं कह रही है। यूक्रेन में रूस के हमले के लिए पश्चिमी मीडिया ने पुतिन को युद्ध अपराधी कहा। लेकिन बेंजामिन नेतन्याहू युद्ध अपराधी नहीं हैइजराइल की बमबारी को आत्म रक्षा के अधिकार से जोड़ दिया गया है। 

 

 

 

क्या यह दूसरा नकबा है

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फिलिस्तीन में 1948 में जब वहां के लोगों को इजराइल ने बड़े पैमाने पर उजाड़ा थातो उसे पहला नकबा कहा गया। लेकिन मौजूदा इजराइल-हमास युद्ध में फिलिस्तीनियों का कत्ल-ए-आम और बेघर होने को दूसरा नकबा कहा जाएफिलिस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन से युद्ध बंद कराने की अपील करते हुए इसे दूसरा नकबा कहा है। अब्बास ने यह भी कहा कि फिलिस्तीनी अपनी जमीन छोड़कर नहीं जाएंगे।

मध्य पूर्व के प्रमुख टीवी चैनल और इस युद्ध की बेबाक रिपोर्टिंग करने वाले अल जजीरा ने भी इसे दूसरा नकबा कहा है। संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के आंकड़े बता रहे हैं कि यह दूसरा नकबा हर हालत में है। गाजा के स्वास्थ्य मंत्रालय ने युद्ध के 18वें दिन 24 अक्टूबर को जो आंकड़ा जारी किया हैउसके मुताबिक 5795 फिलिस्तीनी नागरिक गाजा में मारे जा चुके हैं। जिनमें 2360 बच्चे, 1292 महिलाएं और 295 बुजुर्ग शामिल हैं। 18000 से ज्यादा लोग घायल हैं। मलबे के नीचे 1500 दब गए हैं या गायब हैं। यूएन के मुताबिक अभी तक करीब पांच हजार फिलिस्तीनी नागरिक इजराइली बमबारी में मारे जा चुके हैं। साढ़े चार लाख लोग बेघर हो चुके हैं। करीब 11000 घर नेस्तोनाबूद करके मलबे में बदल दिए गए हैं।

 

लाखों लोगों का अपनी जमीन छोड़नासंपत्ति छोड़कर जाना दूसरा नकबा नहीं तो क्या है। पहले 14 दिनों तक गाजा में कोई मदद नहीं पहुंची। वहां फिलिस्तीनी लोग दाने-दाने के लिए तरस गए। मिस्र-फिलिस्तीन सीमा पर राफा बॉर्डर के जरिए इजराइल ने सीमित मात्रा में राहत सामग्री भेजने की अनुमति दी। यूएन राहत एजेंसियों ने इसे ऊंट के मुंह में जीरा बताया। सीमित राहत भेजने के लिए बहाना यह बनाया गया कि इसे हमास के लड़ाके लूट लेंगे।  







 7 अक्टूबर को युद्ध शुरू होने पर इजराइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने कहा था कि इस युद्ध को हमास ने शुरू किया थालेकिन इसे इजराइल खत्म करेगा। यानी इजराइल जब तक चाहेगाइस युद्ध को लड़ेगा। नेतन्याहू का कहना है कि हमास को खत्म करके ही हम रुकेंगे। अब इजराइल लगातार गाजा में अपनी फौज को भेजकर जमीनी कार्रवाई की धमकी दे रहा है। अभी तक हवाई बमबारी हो रही है। अगर जमीनी लड़ाई छिड़ती है तो गाजा में और भी बर्बादी होगी। लेकिन इसके पीछे इजराइल की वही नीति काम कर रही है कि फिलिस्तीन को अपने एक उपनिवेश में बदलना। अभी तक वेस्ट बैंकगाजा पट्टी के बड़े भूभाग पर उसका कब्जा है। उसने वहां फिलिस्तीनियों की जमीन पर यहूदी बस्तियां बसा दी हैं। जमीनी युद्ध छेड़ने के बाद वो गाजा में स्पेशल जोन यानी कुछ और क्षेत्रों को अपने कब्जे में लेते हुए वहां नई सुरक्षा व्यवस्था लागू कर देगा। आसान शब्दों में कहें तो इजराइल का यह हमला गाजा को और सिकोड़ देगा। तमाम हिस्सों पर उसका नियंत्रण हो जाएगाफिलिस्तीनियों की बदतर जिन्दगी और भी बदतर हो जाएगी। जो सूचनाएं आ रही हैंवो चिन्ताजनक हैं। अमेरिका ने अपने दो युद्धपोत इजराइल के समुद्री क्षेत्र में भेज दिए है। अमेरिका ने खाड़ी देशों में अपने युद्धक विमान तैनात कर दिए हैं। 22 अक्टूबर को अमेरिका ने खाड़ी देशों में अपना डिफेंस एयर सिस्टम सक्रिय करने की घोषणा की है। इस सिस्टम को सक्रिय करने का आशय यह है कि अगर फिलिस्तीन या हमास की मदद के लिए ईरान या अन्य कोई देश हमला करता है तो उसे बीच में ही काबू कर लिया जाएगा। 

 

 

 

 

कहीं अस्पताल पर बम गिराता है कोई

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इस युद्ध के दौरान 17 अक्टूबर को गाजा के अल अहली अरब अस्पताल पर बमबारी की गई। उस समय अस्पताल में बड़ी तादाद में लोगों ने शरण ले रखी थी। गाजा में बमबारी के बाद लोगों ने अस्पतालों और चर्चों में शरण ले रखी थी। क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि मस्जिदें तो बच नहीं रही हैं। लेकिन अस्पताल और चर्च पर शायद इजराइल हमले नहीं करे। लेकिन 17 अक्टूबर और 19 अक्टूबर को लोगों का भ्रम टूट गया। 17 अक्टूबर को अस्पताल पर हमला हुआ और 19 अक्टूबर को चर्च पर हमला हुआ। संयोग से अल अहली अरब अस्पताल एक ईसाई मिशन चलाता है। फिलिस्तीन के स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा कि अस्पताल में करीब 471 लोग मारे गए। इनमें मरीजों और बच्चों की तादाद ज्यादा थी। लेकिन इजराइल जानता था कि अस्पताल पर मारे गए लोगों की संख्या की वजह से पूरी दुनिया में बवाल मचेगा। उसके खिलाफ प्रदर्शन होंगे। उसने फौरन बयान जारी कर कहा कि अस्पताल में उसने बमबारी नहीं की है। इसे हमास से जुड़े इस्लामिक जिहाद संगठन ने अंजाम दिया है। इजराइल के इस बयान के बाद पूरा पश्चिमी मीडिया इजराइल डिफेंस फोर्स (आईडीएफ) के सूत्रों के हवाले से साबित करने में जुट गया कि यह काम इजराइल का नहीं बल्कि हमास से जुड़े संगठन का है। 18 अक्टूबर को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन इजराइल पहुंचे और उन्होंने भी इजराइल को क्लीन चिट दे दी कि अस्पताल पर हमला इजराइल ने नहीं किया। लेकिन अस्पताल के डॉक्टरों और अस्पताल संचालित करने वाली ईसाई मिशनरी ने कहा कि पिछले तीन दिनों से इजराइली सेना फोन करके अल अहली अरब अस्पताल को खाली करने का निर्देश दे रही थी। सेना ने अस्पताल के प्रबंधन से कहा था कि बमबारी के दौरान अस्पताल टारगेट हो सकता हैइसलिए इसे फौरन खाली कर दिया जाए। 







अभी पश्चिमी मीडिया जब 17 अक्टूबर के अस्पताल हमले में हमास का हाथ होना साबित करने में जुटा था कि 19  अक्टूबर को गाजा में ग्रीक ऑर्थोडॉक्स सेंट पोर्फिरियस चर्च पर बमबारी कर दी गई। चर्च ने गाजा के सैकड़ों ईसाइयों और मुसलमानों को हमले से बचने के लिए शरण दे रखी थी। इस हमले में 19 फिलिस्तीनी ईसाई मारे गए। इस हमले की जिम्मेदारी पूरी निर्लज्जता के साथ इजराइली डिफेंस फोर्स ने ली। उसने कहा कि वो हमास को टारगेट कर रहा था लेकिन गलती से चर्च पर बमबारी कर दी। इजराइल ने इस कुकृत्य के लिए माफी नहीं मांगी। उसने चर्च के अधिकारियों से कहा कि वे चर्च खाली कर देंक्योंकि आसपास की बिल्डिंगों को निशाना बनाया जा सकता है। फिलिस्तीनी ईसाइयों ने कहा कि वो चर्च छोड़कर नहीं जाएंगेबेशक उन्हें अपनी जान देना पड़े। यह उनकी जमीन हैवे यहीं मरना चाहते हैं। किसी भी साम्राज्यवादी देश ने चर्च पर इजराइली आतंकवाद की निन्दा नहीं की। हमास बुरा कर रहा है लेकिन क्या इजराइल अच्छा कर रहा है। इस सवाल को पूछने वालों को मूर्ख साबित किया जा रहा है। हिटलर के यहूदी नरसंहार के सामने इजराइल के फिलिस्तीन नरसंहार का मुद्दा उठाना अब बेमानी होता जा रहा है।

 

अमेरिकाब्रिटेनफ्रांसजर्मनी समेत दुनिया के कई देशों में अस्पताल के हमले के खिलाफ प्रदर्शन हुए। किसी ने यह स्वीकार नहीं किया कि इजराइल और अमेरिका जो कहानी बता रहे हैंवो सही है। इस घटना का एक नतीजा यह भी हुआ कि बाइडेन जो 18 अक्टूबर को इजराइल की यात्रा के बाद वहां से अरब लीग के नेताओं के साथ मुलाकात के लिए जॉर्डन जाने वाले थेउन्होंने बाइडेन के साथ मुलाकात रद्द कर दी। फिलिस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने बाइडेन से मिलने से मना कर दिया।

 

अमेरिका एक चिकना घड़ा है। अरब लीग के देशों ने बाइडेन के साथ बैठक टाल दीइसे उसने कूटनीतिक झटका नहीं माना। 19 अक्टूबर को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनाक पहुंचे और उन्होंने भी अमेरिका की तर्ज पर इजराइल का हौसला बढ़ाया। बाइडेन और सुनाक के पहुंचने से भी पहले 15 अक्टूबर को जर्मनी के चांसलर ओलाफ शुल्ज भी इजराइल का हौसला बढ़ाकर आए थे। 24 अक्टूबर को फ्रांसीसी राष्ट्रपति मैक्रां ने भी तेल अवीव जाकर नेतन्याहू की पीठ थपथपाई। इजराइल-हमास युद्ध में बड़े देशों की खेमेबंदी इस बार पूरी निर्लज्जता के साथ है। इससे पहले भी इजराइल और हमास लड़ते रहे हैं लेकिन ये बड़े देश प्रतिक्रिया देने में संतुलन रखते थे। फिलिस्तीन से भी हमदर्दी जताते थे। लेकिन इस बार इस दुविधा को ताक पर रख दिया गया है।

 

 

इस युद्ध का दोषी कौन

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अगर आप अब भी इस युद्ध के लिए इजराइल को दोषी नहीं मानते हैं तो मैं इजराइल के मौजूदा दौर के इतिहासकार इलान पप्पे की टिप्पणी के जरिए अपनी बात कहना चाहूंगा। इजराइल-हमास युद्ध के दौरान इतिहासकार इलान पप्पे ने अल जजीरा को इंटरव्यू दिया। जिसमें उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण बात कही। इलान पप्पे ने कहा-   "मैं वर्तमान युद्ध के लिए इज़राइल को दोषी मानता हूं क्योंकि हमें उस संदर्भ को कभी नहीं भूलना चाहिएजिसमें हमास का हमला हुआ था। और वह है गाजा की घेराबंदी है जो 2006 में शुरू हुई थी। इस हिंसा का स्रोत फिलिस्तीनी क्षेत्रों पर कब्जा  और उसे इजराइल का उपनिवेश बनाने की कोशिश है। इजराइल पिछले 8 सालों से सीरिया पर लगातार बमबारी कर रहा है। पश्चिम के आदर्श दोहरे मानकों पर आधारित है। संप्रभुतानियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्थायुद्ध अपराधमानवाधिकार... ये सभी शर्तें सिर्फ गैर-श्वेत और गैर-पश्चिमी देशों पर लागू होती हैं।" इसी लेख में आगे चलकर आप इलान पप्पे के जायोनिज्म के बारे में विचार पढ़ सकेंगे। उसे पढ़कर इस संघर्ष को और भी अच्छी तरह समझ सकेंगे।

 

 

 


 

 

मुस्लिम देशों की समझदारी या बेवकूफी

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इजराइल हमास युद्ध में मुस्लिम देशों को लेकर मैं किसी पूर्वाग्रह से कुछ नहीं लिखना चाहता। इसलिए मैं उन्हें समझदारी और बेवकूफी के संदर्भ में ही देखना चाहता हूं। इस युद्ध में मुस्लिम देश एकजुट होने के बावजूद दो खेमों में बंट हुए हैं। एक ईरान है और दूसरा खेमा अरब देश हैं। अमेरिका पर सऊदी अरब का प्रभाव है। इसलिए अमेरिका ने सऊदी अरब और इजराइल की दोस्ती कराई और दोनों देश राजनयिक संबंध बहाल करने पर राजी हुए। 7 अक्टूबर को जब मध्य पूर्व की स्थिति एक हमले से बदल गईठीक उससे पहले इजराइल और सऊदी अरब में शांति समझौता होने जा रहा था। जिसके तहत सऊदी क्राउन प्रिंस को इजराइल आना था। अमेरिका और इजराइल की नजर पिछले 45 वर्षों से ईरान पर है। ईरान इस क्षेत्र का एक ऐसा देश हैजो इजराइल को दुनिया के नक्शे से मिटाने की बात कहता रहा है। इजराइल और ईरान के बीच हिजबुल्लाहहमास और यमन के हूतियों के जरिए प्रॉक्सी वॉर लंबे समय से चल रही है। इजराइल और अमेरिका इससे परेशान हैं। दूसरी तरफ सऊदी अरब और ईरान में भी नहीं बनती है। उसके धार्मिक और ऐतिहासिक कारण हैं। वो इस लेख का विषय भी नहीं हैं। इजराइल-सऊदी अरब शांति समझौता सिरे चढ़ताउससे पहले ही 7 अक्टूबर को हमला हुआ और जवाब में इजराइल ने जब गाजा में तबाही मचाई तो न सिर्फ ईरान बल्कि सऊदी अरब भी भड़क गया। ईरान ने फौरन 56 देशों के मुस्लिम संगठन ओआईसी की बैठक बुलाने की मांग कर दी। सऊदी क्राउन प्रिंस सलमान ने फौरन ही ईरान के राष्ट्रपति से बात की। 56 देशों की बैठक हुई तो उसमें ईरान ने प्रस्ताव रखा कि पूरा मिडिल ईस्ट और सभी मुस्लिम देश इजराइल का आर्थिक बहिष्कार करें। इस प्रस्ताव का विरोध नहीं हुआ लेकिन कई किन्तु-परंतु से यह पास नहीं हो पाया। सऊदी अरबतुर्कीसंयुक्त अरब अमीरातबहरीनकुवैतकतरमिस्त्रजॉर्डन से जिस तल्खी की उम्मीद या किसी कार्रवाई की उम्मीद की जा रही थीवो उन्होंने नहीं किया। कोलंबिया जैसे छोटे से देश ने इजराइल से सारे संबंध तोड़ लिए लेकिन ईरान को छोड़कर कोई भी मुस्लिम देश यह साहस नहीं दिखा सका। ईरान-इजराइल संबंध कई दशक से नहीं हैं।

 

25 अक्टूबर को दो घटनाक्रम हुए। जो इस सिलसिले में महत्वपूर्ण हैं। ईरान समर्थित हिजबुल्लाह के प्रमुख सैयद हसन नसरल्लाह ने हमास की टॉप लीडरशिप के साथ बेरूत में बैठक की और इजराइल की ओर से गाजा पर जमीनी हमला होने पर जवाबी कार्रवाई का फैसला हुआ। यानी अगर गाजा के अंदर इजराइली टैंक घुसे तो हिजबुल्लाहहमासहूती उसका जवाब देंगे। हालांकि यह अलग बात है कि ये सारे चरमपंथी लड़ाके इजराइल-अमेरिका की ताकत के सामने ठहर नहीं पाएंगे। वक्त पर इसका जवाब मिलेगा। लेकिन जो प्रत्यक्ष है वो ये कि अगर ऐसा हुआ तो तमाम मुस्लिम देशों में वहां की जनता अपनी सरकारों पर कार्रवाई के लिए दबाव बनाएगी और विद्रोह की स्थिति पैदा हो जाएगी। तमाम मुस्लिम देशों में वहां का अवाम अपनी हुकूमत पर हमास की खुलकर मदद करने और इजराइल से संबंध तोड़ने की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं। इस तरह पूरे मिडिल ईस्ट की शांति व्यवस्था भंग हो सकती है। इसमें सबसे ज्यादा सऊदी अरब और बहरीन डरे हुए हैंक्योंकि वहां की जनता पहले भी अपनी हुकूमत के खिलाफ दूसरे मुद्दों पर सड़कों पर आ चुकी है।

 

 

मुस्लिम देश समझदारी से काम ले रहे हैं। इसलिए वे मिडिल ईस्ट की शांति भंग करने को बहुत ज्यादा उत्सुक नहीं हैं। लेकिन अगर उनका रवैया ऐसा ही ढीलाढाला रहा तो इजराइल गाजा के और हिस्सों पर कब्जा कर लेगा और फिलिस्तीन का नक्शा एक बार फिर बदल जाएगा। इसलिए मुस्लिम देशों को समझदारी के साथ-साथ इजराइल को सबक सिखाने के लिए कुछ न कुछ कदम तो उठाना ही चाहिए। इसमें ईरान ने जो आर्थिक नाकेबंदी का जो प्रस्ताव पेश किया थावो ज्यादा बेहतर था। उसके दूसरे चरण में इजराइली राजदूतों को मिडिल ईस्ट के सभी देशों से हटाने की कार्रवाई होनी थी। बहरहालईरान का प्रस्ताव ठंडे बस्ते में है। इन सारे हालात में सऊदी अरब सबसे ज्यादा घाटे में रहने वाला है। क्योंकि वहां की जनता यह मानती है कि आल-ए-सऊद खानदान अमेरिका परस्त हैं। उनकी सारी दौलत अमेरिकी बैंकों में रखी हुई है या फिर वहां की कंपनियों में निवेश है। सऊदी अरब में मामूली चिंगारी भी खतरनाक साबित हो सकती है। इस युद्ध के बाद दुनिया में जहां-जहां भी मुस्लिम रहते हैंउनमें अमेरिका और सऊदी अरब को लेकर गलत संदेश गया है।    

 

हिजबुल्लाह और हमास नेताओं की 25 अक्टूबर की मुलाकात के दिन तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयिब इर्दोगान ने वहां की संसद में बहुत महत्वपूर्ण बयान दिया। राष्ट्रपति इर्दोगान ने कहा कि तुर्की हमास को आतंकी संगठन नहीं मानता वो फिलिस्तीन के लोगों के लिए लड़ रहा है। तुर्की पूरी तरह से हमास के समर्थन में है। मैं इजराइल की यात्रा पर इस युद्ध से पहले जाने वाला था लेकिन अब मैं इजराइल नहीं जाऊंगा। तुर्की के राष्ट्रपति का यह बयान युद्ध के 19वें दिन आया है। लेकिन महत्वपूर्ण है। क्योंकि शुरुआत में तुर्की ने जब अनुकूल प्रतिक्रिया नहीं दी तो उसे लेकर तमाम संशय उठ रहे थे। यहां यह साफ करना जरूरी है कि हिजबुल्लाहहमास और हूती संयुक्त राष्ट्रइजराइल और अमेरिका सहित उसके पिछलग्गू देशों के लिए आतंकी संगठन घोषित हैं। लेकिन हिजबुल्लाह लेबनान की सुरक्षा करता है और वहां की ईसाई सरकार में शामिल है। इसी तरह हमास फिलिस्तीनियों के लिए खड़ा होता है और गाजा पट्टी में वो प्रशासन संचालित करता है। इसी तरह हूती भी यमन में सऊदी अरब-अमेरिका समर्थक शासक को उखाड़ फेंकने के बाद सत्ता में आए हैं।  

 

 

 

पहला नकबा और इजराइल का उदय

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 2 नवंबर 2023 बहुत दूर नहीं है। उस दिन जायोनी आंदोलन को अपना देश मिला था। इसे बाल्फोर घोषणा भी कहा जाता हैजिसे जायोनिस्ट यानी अल्ट्रा इजराइली राष्ट्रवादी हर साल त्यौहार के रूप मेंजीत के रूप में मनाते हैं। बाल्फोर घोषणा 2 नवंबर 1917 के जरिए ही इजराइल नामक देश को अमली जामा पहनाया गया था। 2 नवंबर 1917 फिलिस्तीनी लोगों की जिन्दगी को हमेशा के लिए एक नासूर दे गया।

 

 



 

ब्रिटेन ने 1917 में ओटोमन साम्राज्य की सेना के साथ खूनी लड़ाई के बाद फिलिस्तीन पर कब्जा कर लिया और इज़राइल राज्य की स्थापना के लिए काम शुरू कर दिया। इतिहास ने दर्ज किया है कि 2 नवंबर, 1917 की घोषणा मेंतत्कालीन ब्रिटिश विदेश सचिव आर्थर बाल्फोर ने लॉर्ड लियोनेल वाल्टर रोथ्सचाइल्ड - जो उस समय ज़ायोनी आंदोलन के नेता थे - से कहा कि ब्रिटिश सरकार "फिलिस्तीन में एक देश की स्थापना के पक्ष में विचार कर रही है। यह यहूदी लोगों का अपना देश होगा।" बताते चलें कि ये वही रोथ्सचाइल्ड हैं जिनका परिवार रोथ्सचाइल्ड बैंकर के रूप में पूरी दुनिया में मशहूर है। दुनिया में कहीं भी सरकारी या प्राइवेट बैंक जब खुलते हैं तो उनमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में रोथ्सचाइल्ड परिवार का हाथ होता है। यानी दुनिया की बैंकिंग पर रोथ्सचाइल्ड का कब्जा बरकरार है। यह यहूदी परिवार आज भी अमेरिका की सत्ता को अपनी बैंकिंग के जरिए प्रभावित करता है। अगर तमाम अपुष्ट कहानियों पर यकीन किया जाए तो उसके मुताबिक दुनिया में जो नया वर्ल्ड ऑर्डर बन रहा हैउसके पीछे रोथ्सचाइल्ड परिवार है। लेकिन इस कहानी की पुष्टि के लिए तथ्य नहीं हैं। इसलिए इसे यहीं छोड़ते हैं। फिर भी एक बात साफ हो गई की जिस जायोनी आंदोलन से इजराइल देश हासिल हुआ हैउस आंदोलन का अगुआ रोथ्सचाइल्ड परिवार है। जायोनी आंदोलनकारियों को ही जायोनिस्ट कहा जाता है। जायोनिस्ट या जायोनिज्म की पूरी विचारधारा अंध राष्ट्रवाद है। जर्मनी में जिस हिटलर के नाजी आंदोलन के खिलाफ जिन यहूदी राष्ट्रवादियों ने जायोनी आंदोलन शुरू किया थाबाद में वो खुद नाजी जैसे आंदोलन में बदल गया है। गाजा में जो कुछ हो रहा हैक्या वो किसी नाजीवाद से कम है?

 

 

 

2 नवंबर 1917 को जब बाल्फोर ने यह घोषणा की थी तो उसमें एक महत्वपूर्ण लाइन थी- "ब्रिटिश सरकार वादा करती है कि ऐसा कुछ भी नहीं किया जाएगा जो फिलिस्तीन में मौजूदा गैर-यहूदी समुदायों के नागरिक और धार्मिक अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है...।" लेकिन इजराइल की जायोनिस्ट सरकार आज गाजा में बाल्फोर घोषणा के खिलाफ काम कर रही है।

 

 

 

खैरफिलिस्तीन के इतिहास पर लौटते हैं। 1917 में यह साफ हो गया था कि अलग इजराइल देश के लिए तैयारी शुरू हो गई थी। बाल्फोर घोषणा की कोई चर्चा उस समय कोई नहीं करता था। लेकिन फिलिस्तीन के लोग उस घोषणा के वादों को टूटता हुआ देख रहे थे। 1948 में ब्रिटेन फिलिस्तीन से चला गया और ज़ायोनी समूहों ने फ़िलिस्तीनी लोगों की ज़मीनों पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया। उन्होंने हज़ारों फ़िलिस्तीनियों को उनकी ज़मीनों से भगा दिया और इज़राइल देश की घोषणा की। इसी को फिलिस्तीनी लोग "नकबा" बोलते हैं। यह पहला नकबा था। नकबा यानी किसी को उजाड़नादर बदर कर देना।

 

इस तरह 1948 में ऐतिहासिक फ़िलिस्तीन का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा इज़राइली नियंत्रण में आ गयाजबकि पड़ोसी जॉर्डन ने फ़िलिस्तीनी वेस्ट बैंक पर नियंत्रण कर लिया और गाजा पट्टी मिस्र (इजिप्ट) प्रशासन के तहत आ गई।

 

 

इस दौरान इजराइल की कब्जे की कार्रवाई जारी रही। 1967 मेंइज़राइल ने पूर्वी येरुशलममिस्र के सिनाई प्रायद्वीप के साथ गाजा पट्टी और सीरियाई गोलान हाइट्स सहित वेस्ट बैंक पर कब्जा कर लिया। दरअसल, 1967 में इजिप्ट और सऊदी अरब ने इजराइल पर हमला किया था। लेकिन इजराइल उस युद्ध में इन देशों पर भारी पड़ा।

 

 

 अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ा तो 1993 में इज़राइल ने फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (पीएलओ) के साथ ओस्लो में समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते के तहत वेस्ट बैंक (जेरूशलम को छोड़कर) और गाजा पट्टी के मुख्य शहरों को फिलिस्तीनी राष्ट्रीय प्राधिकरण को सौंप दिया गया। बाद में वहां चुनाव हुए तो हमास एक बड़ी पार्टी के रूप में उभरा। दूसरी पार्टी फतह पार्टी कहलाती है। हमास को यूएनअमेरिका-इजराइल खेमा आतंकवादी गुट मानता है लेकिन फिलिस्तीनी लोगों का कहना है कि हमास ही उनकी भावनाओं का नेतृत्व करता है।

 

 





 

 

एक ऐतिहासिक माफीनामा

 

 

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 1917 में द गार्जियन ब्रिटेन का प्रमुख अखबार था और ब्रिटेन की सरकार तक उसकी आलोचना को गंभीरता से लेती थी। 1917 में द गार्जियन ने बाल्फोर घोषणा का जबरदस्त समर्थन किया था और ब्रिटिश हुकूमत के साथ खड़ा था। लेकिन वक्त बीतता रहा। इजराइल के कब्जे की कार्रवाई गाजा में बढ़ती जा रही थी। 7 मई 2021 को उसी गार्जियन अखबार ने बाल्फोर घोषणा का समर्थन करने के लिए माफी मांगीखेद जताया। यानी सौ साल बाद एक अखबार को अपनी गलती का एहसास हुआ। उसने लिखा कि 2017 में बाल्फोर घोषणा का समर्थन करना उस अखबार की बहुत बड़ी गलती थी। ब्रिटिश दैनिक द गार्जियन ने लिखा, "1917 के गार्जियन ने बाल्फोर घोषणा का समर्थन कियाजश्न मनाया और यहां तक कि कहा जा सकता है कि इसने इसे सुविधाजनक बनाने में मदद की।"यह भी कहा कि तत्कालीन संपादकसीपी स्कॉटज़ायोनीवाद के समर्थन के कारण फिलिस्तीनी अधिकारों के प्रति "अंधे" हो गए थे। यानी तत्कालीन संपादक ने फिलिस्तीन लोगों के अधिकार के बारे में जरा भी नहीं सोचाजो वहां के मूल बाशिंदे थे। 7 मई 2021 को अपने माफीनामे में द गार्जियन ने लिखा- "और कुछ भी कहा जा सकता हैइज़राइल आज वह देश नहीं है जिसका गार्जियन ने अनुमान लगाया था या उस समय चाहता रहा होगा।"

 

 

 

द गार्जियन का यह माफीनामा इतिहास में दर्ज है और बहुत पुराना इतिहास नहीं है। भारतीय मीडिया और उसके कुछ ढपलीबाज संपादकएंकरपत्रकार खोजकर इस घटना के बारे में पढ़ लें। क्या भारत के किसी अखबार का संपादक या चैनल द गार्जियन जैसा साहस दिखा सकता है। भारत में तो असंख्य घटनाएं हैंजिनके लिए भारत के मुजरेबाज एंकरों को माफी मांगनी चाहिए कि उन्होंने समय-समय पर सत्तारूढ़ सरकार का गलत साथ दिया- कोरोनाकालबाबरी मसजिद पर अदालत का फैसलापुलवामा हमलासरकार विरोधी मीडिया और समुदाय विशेष पर दमनचक्र आदि अघोषित आपातकाल ही है...। फेहरिस्त लंबी है।

 

 

 

क्या मिट जाएगा फिलिस्तीन

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इस साल 2 नवंबर को बाल्फोर घोषणा की वर्षगांठ ऐसे समय में आई है जब फिलिस्तीनी अब तक के सबसे बड़े नाजी जैसे नरसंहार का सामना कर रहा है। दरअसलजिस होलोकास्ट की बात यहूदी करते रहे हैंपूरे फिलिस्तीन के लिए यही होलोकास्ट है। इसे फिलिस्तीनी होलोकास्ट या गाजा होलोकास्ट जो भी नाम आप देना चाहें। जानकारी रहे कि जर्मनी में जब हिटलर ने यहूदियों का बड़े पैमाने पर नरसंहार किया तो जायोनिस्टों ने उसे होलोकास्ट नाम दिया था।

 

इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने 7 अक्टूबर को कहा था कि वे हमास को खत्म करने की कसम खाते हैंलेकिन नेतन्याहू यह भूल गए कि हमास एक फिलिस्तीनी लोगों को जायोनिस्टों के कब्जे से आजाद करने की विचारधारा का नाम है। विचारधारा कभी खत्म नहीं होती। पूरी दुनिया में कम्युनिस्ट विचारधारा को मिटाने की कोशिश हुईसोवियत संघ खंड-खंड हो गया लेकिन कम्युनिस्ट विचारधारा आज भी जिन्दा है। उसी तरह फिलिस्तीन की आजादी की विचारधारा किसी भी कीमत पर मिट नहीं सकती। बेशक अमेरिका अपने हथियारों से कितना भी इजराइल को सुसज्जित कर दे।

 

 

 

इजराइल जायोनीवाद की पैदाइश कैसे है

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मेरे लेख में बार-बार जायोनीवाद और जायोनिज्म का जिक्र आया है। इजराइल का फिलिस्तीनी लोगों के साथ जो संघर्ष चल रहा हैउसका इससे गहरा संबंध है। यह बात ऊपर बताई ही जा चुकी है कि बाल्फोर घोषणा के समय तत्कालीन ब्रिटिश विदेश सचिव आर्थर बाल्फोर को लॉर्ड लियोनेल वाल्टर रोथ्सचाइल्ड ने अलग इजराइल देश बनाने की सलाह दी थी। रोथ्सचाइल्ड एक बैंकर था। वही शख्स जायोनीवाद का सबसे बड़ा अगुआ था। बहरहालमौजूदा दौर के तमाम इजराइली इतिहासकार इस युद्ध से सहमत नहीं है। जैसे ही 7 अक्टूबर को इज़राइल ने घिरे गाजा पर युद्ध की घोषणा कीपश्चिमी देश अपने पसंदीदा मध्य पूर्वी देश इजराइल के पीछे एकजुट हो गए। सबसे उत्साहपूर्ण समर्थन ब्रिटेन और अमेरिका से मिला। हालाँकि अन्य पश्चिमी देशों ने भी इज़राइल के प्रति फौरन सहानुभूति और समर्थन दिखायालेकिन ब्रिटेन का समर्थन अलग तरह का था। बाद में ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋषि सुनाक ने इजराइल का युद्ध के दौरान दौरा भी किया। ऋषि सुनाक भारतीय मूल के दक्षिणपंथी विचारधारा के नेता हैं। इजराइल में इस समय प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू भी दक्षिणपंथी विचारधारा के प्रबल समर्थकों में से हैं। दरअसलइजराइल केवल ब्रिटेन का सहयोगी नहीं है। यह ब्रिटिश पैदाइश है। मौजूदा  दौर के इजराइली इतिहासकार इलान पप्पे का तर्क है कि ज़ायोनीवाद वास्तव में एक ऐतिहासिक ईसाई प्रक्रिया का परिणाम हैयह उस यहूदीवाद के खिलाफ हैजो यूरोप में पला-बढ़ा था। अमेरिका और ब्रिटेन बेशक खुद को नस्लवाद के खिलाफ मानते हैंलेकिन उनका इस्लाम विरोधी रवैया अपने आप में बताता है कि पश्चिमी देश आज इस्लाम के संबंध में क्या राय रखते हैं। 




जायोनीवाद या जायोनिज्म का पूरा प्रोजेक्ट इस्लाम विरोध के इर्द-गिर्द घूमता है। फिलिस्तीनी चूंकि इस्लाम को मानने वाले हैं तो जायोनीवाद का पूरा प्रोजेक्ट कट्टरपंथी यहूदी या  जायोनिस्ट उसे परवान चढ़ा रहे हैं। इलान पप्पे कहते हैं- ज़ायोनीवाद ने ही ने 1948 के नकबा को जन्म दिया। फिलिस्तीनियों को उनकी जमीन से उजाड़ने की औपनिवेशिक परियोजना।  यह जातीय सफाया आज भी जारी हैऔर मूल रूप से पश्चिम में एक मजबूत गठबंधन ने फिलिस्तीनियों को बेदखल करने के लिए बुनियादी ढांचा मुहैया कराया था। वो लिखते हैं कि यह आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता है कि ज़ायोनीवाद मूल रूप से एक ईसाई परियोजना थी। ज़ायोनीवाद की इस वंशावली को आमतौर पर अनदेखा कर दिया जाता है जब इतिहासकार इस बात पर विचार करते हैं कि आखिर ब्रिटेन ने फिलिस्तीन को उपनिवेश बनाने और वहां एक यहूदी राज्य बनाने की यहूदी ज़ायोनी परियोजना का समर्थन करने का फैसला क्यों किया। वे ये काम अपनी किसी भी कॉलोनी में कर सकते थे। 1917 से हो रही घटनाओं को इस संदर्भ में देखें तो ब्रिटिश हुकुमतों ने जायोनिज्म की सफलता के लिए काम किया।

 

इजराइली इतिहासकार इलान पप्पे लिखते हैं- और भी ऐसे कई कारण थे जिन्होंने ज़ायोनीवाद की सफलता और नवगठित ज़ायोनी देश इजराइल को अंतर्राष्ट्रीय समर्थन दिलाया। होलोकास्टजर्मनी में यहूदियों के नरसंहार का पश्चिमी अपराधबोधइस्लामोफोबियापूंजीवादी और उद्योगपति समर्थक अमेरिकी समर्थनसभी ने जायोनीवाद और इजराइल को मजबूत बनाने में अपनी भूमिका निभाई। वह लिखते हैं कि यह सबकुछ एक रिले रेस की तरह हैजिसमें अंतिम दौड़ने वाले अपने आगे वाले को बैटन थमा देता है। जायोनीवाद सत्तर साल के ब्रिटिश जद्दोजेहद का नतीजा है। नकबा यानी 1948 की फ़िलिस्तीनी तबाहीसिर्फ फ़िलिस्तीन पर कब्ज़ा करने के ब्रिटेन के फैसले का नतीजा नहीं थाबल्कि फ़िलिस्तीन को एक ज़ायोनी राज्य बनाने का फैसला था।

 

इलान पप्पे के बारे में यहां थोड़ी सी जानकारी देना जरूरी है। इलान पप्पे एक्सेटर यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं। वह पहले हाइफ़ा यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के वरिष्ठ प्रोफेसर थे। द एथनिक क्लींजिंग ऑफ़ फ़िलिस्तीन उनकी मशहूर किताब है। द मॉडर्न मिडिल ईस्टए हिस्ट्री ऑफ़ मॉडर्न फ़िलिस्तीन: वन लैंडटू पीपल्सऔर टेन मिथ्स अबाउट इज़राइल भी उन्होंने लिखी हैं। पप्पे को इज़राइल के 'नए इतिहासकारोंमें खास दर्जा हासिल है। मिडिल ईस्ट के तमाम प्रकाशन उनके लेखों को छापते रहते हैं।

 

 




 

 

 

इजराइल-अमेरिका का हथियार उद्योग

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अमेरिका और इजराइल में सबसे बड़ी हथियार लॉबी है। हर युद्ध अमेरिका और इजराइल की कंपनियों को फायदा पहुंचाता है। कोरोना हो या युद्ध मुनाफा कमाने की साम्राज्यवादी सोच इसके पीछे काम करती है। अमेरिका में अधिकांश हथियार कंपनियों के मालिक यहूदी हैं या फिर किसी न किसी प्रकार से वो कंपनी किसी यहूदी समूह से जुड़ी हुई हैं। इसी तरह इजराइल की हथियार कंपनियां कई देशों में सरकारों तक को प्रभावित कर रही है। इजराइल के मौजूदा प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू हथियार लॉबी के सबसे बड़े खैरख्वाह हैं। भारत में पेगासस स्पाईवेयर को लोग शायद भूल गए हैं। पेगासस सॉफ्टवेयर का निर्माण इजराइल की कंपनी एनएसओ ने किया है। पेगासस को भारत में कई विपक्षी नेताओं और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के मोबाइल और कंप्यूटर में डालकर उनकी जासूसी की गई। पेगासस भारत में बेंजामिन नेतन्याहू के जरिए पहुंचा था। पेगासस को दुनिया के उन देशों में बेचा गयाजहां सत्तारूढ़ पार्टी ने विपक्षी नेताओं पर नजर रखने के लिए इस्तेमाल किया। भारत में पेगासस का मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। अदालत इस मामले में केंद्र सरकार की जवाबदेही तय नहीं कर सकी। जबकि कोई भी विदेशी हथियार या ऐसा सॉफ्टवेयर बिना सरकारी अनुमति भारत में इस्तेमाल नहीं हो सकता है। पेगासस का संदर्भ या इजराइल की वजह से आया है। हमारा मुद्दा हथियारों का कारोबार है। 

 

 

न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट बताती है कि 2022 तकदुनिया के हथियारों के निर्यात का अनुमानित 45 फीसदी अमेरिका नियंत्रित कर रहा था या उसका कब्जा था। जो किसी भी अन्य देश की तुलना में लगभग पांच गुना अधिक था। इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार अमेरिकी सैन्य विभाग पेंटागन ने अमेरिकी कांग्रेस यानी वहां की संसद को सूचित किया है कि साल 2023 के पहले नौ महीनों में $90.5 बिलियन से अधिक हथियारों की बिक्री हो गई हैजो पिछले दशक की तुलना में लगभग $65 बिलियन के वार्षिक औसत की गति से अधिक है। ये सारे हथियार सरकार से सरकार के बीच बेचे गए हैं यानी अमेरिका ने उन देशों की सरकारों को बेचा है। जिसमें यूक्रेन नंबर 1 पर है।

 

 

 

यूक्रेन-रूस युद्ध अभी भी जारी है। अमेरिका ने इजराइल-हमास युद्ध शुरू होने के बाद कहा है कि अमेरिका और उसके सहयोगी देश दोनों युद्ध में मदद रखने की ताकत रखते हैं। अब आप इस बयान के निहितार्थ लगाते रहिए। पोलैंड जैसे देश ने यूक्रेन-रूस युद्ध के बाद बड़े पैमाने पर अमेरिका से हथियार खरीदे हैं। रूस के नजदीक आसपास जितने भी नाटो सदस्य देश या अमेरिकी खेमे के देश हैंवहां हथियारों की खरीद बढ़ गई है। समझा जा सकता है कि यह सब क्यों हो रहा है और किसलिए हो रहा है। 

 

 

इसी तरह इजराइल के हथियारों का कारोबार नई ऊंचाइयां छू रहा है। अमेरिकी समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने बताया है कि  इजराइली रक्षा मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2022 में इजराइली हथियारों की बिक्री 12.5 बिलियन डॉलर के नए रिकॉर्ड पर पहुंच गई। अधिकारियों ने यूक्रेन पर रूस के युद्ध के कारण इजराइल निर्मित हथियारों की मांग और हाल ही में इजराइल के साथ संबंध सामान्य करने वाले अरब देशों की रुचि में बढ़ोतरी पर ध्यान दिया। हालांकि गाजा पर ताजा हमले के बाद अरब देश इजराइल के खिलाफ हो गए हैं। ड्रोन और एयर डिफेंस सिस्टम में इजराइल बाजी मार रहा है। भारत में सेना इजराइल के एयर डिफेंस सिस्टम का इस्तेमाल कर रही है। एशिया में इजराइल के हथियार सबसे ज्यादा बिकते हैंजो कुल बिक्री का 30 फीसदी हैं। यूरोप में 29 फीसदीअब्राहम समझौते वाले देशों में 24 फीसदी हथियार इजराइल के बिकते हैं। उत्तरी अमेरिका में 11 फीसदी हथियार इजराइल के बिकते हैं। अब्राहम समझौते वाले देशों में सऊदी अरबबहरीनयूएईसूडान वगैरह हैं। लेकिन गाजा पर हमलों के बाद इन देशों ने इजराइल से सारी डील फिलहाल रद्द कर दी है।

 

हाल ही में अमेरिका ने इजराइल को हमास से युद्ध को देखते हुए करीब सौ अरब डॉलर की मदद करने के लिए अमेरिकी संसद से अनुमति मांगी है। अमेरिका की घोषणा के बाद रूस ने युद्ध को एक स्मार्ट निवेश बताया है। रूस ने यह बात यूक्रेन और इजराइल को अमेरिकी मदद के संदर्भ में कहा। लेकिन अगर हथियार बिक्री के आंकड़ों को देखें तो यह भयावह सच सामने आता है। यूक्रेन इस समय हथियार खरीदने का सबसे बड़ा ग्राहक है। रूस ने कहा कि अमेरिका और यूरोपीय देश एक भी युद्ध अपने क्षेत्र या अपनी धरती पर नहीं लड़ रहे हैं। सभी युद्ध उन क्षेत्रों में हुए हैं या हो रहे हैंजहां इनके हथियार बिकते हैं।

 

 

 


 

 

भारत का रवैया

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इजराइल-हमास युद्ध में भारत की अजीबोगरीब स्थिति है। 7 अक्टूबर को जब हमास ने हमला कियाप्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फौरन ट्वीट करके हमले की निन्दा कर दी और लिखा कि भारत इजराइल के साथ इस दुख की घड़ी में खड़ा है। मोदी की पूरी प्रतिक्रिया एकतरफा थी। तब तक अमेरिकाब्रिटेनफ्रांसजर्मनी तक की प्रतिक्रिया नहीं आ पाई थी। लेकिन मोदी की आ गई थी। लेकिन भारतीय विदेश मंत्रालय ने अगले ही दिन बयान देकर बता दिया कि सरकार में तालमेल का कितना अभाव है। भारतीय विदेश मंत्रालय ने साफ शब्दों में कहा कि फिलिस्तीन में बेगुनाह लोगों का खून नहीं बहाया जाना चाहिए। भारत फिलिस्तीन को एक संप्रभु राष्ट्र मानता है।  फिलिस्तीन समस्या का हल निकाला जाना चाहिए। दो देश (टु नेशन) ही इस समस्या का हल है। इसके बाद 17 अक्टूबर की घटना हो गई। गाजा के अस्पताल पर बमबारी में 500 लोगों के मारे जाने के बाद प्रधानमंत्री का दिल भी पसीजा और उन्होंने अपने पिछले बयान को एकदम से भूलते हुए बयान दिया। फौरन फिलिस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास से बात की। पीएम मोदी गाजा के अल अहली अस्पताल में नागरिकों की हत्या पर अपनी संवेदना व्यक्त की। मोदी ने यह भी कहा कि हम फिलिस्तीनी लोगों के लिए मानवीय सहायता भेजना जारी रखेंगे। क्षेत्र में आतंकवादहिंसा और बिगड़ती सुरक्षा स्थिति पर अपनी गहरी चिंता साझा की। मोदी ने इजराइल-फिलिस्तीन मुद्दे पर भारत की लंबे समय से चली आ रही सैद्धांतिक स्थिति को दोहराया। इसके बाद भारत ने 22 अक्टूबर को 6.2 टन मेडिकल सहायता और 32 टन राहत सामग्री गाजा यानी फिलिस्तीन के लोगों के लिए रवाना कर दी।

 

प्रधानमंत्री मोदी के दूसरे ट्वीट और 22 अक्टूबर को राहत सामग्री भेजने से साफ हो गया कि फिलिस्तीन को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरूइंदिरा गांधीराजीव गांधीडॉ मनमोहन सिंह की जो नीति रही हैभारत वही नीति जारी रखेगा। बेशक इजराइल के हैफा में अडानी पोर्ट बन रहा हो या इजराइल भारत में अडानी की कंपनियों में निवेश कर रहा हो। भारत की विदेश नीति अडानी के लिए नहीं बदलेगी। भारत के लिए यही बेहतर भी है। क्योंकि जिस तरह से एशियाई देशों में अमेरिका अपनी नीतियों को चीन के खिलाफ लागू करना चाहता हैउसमें उसे भारत की जरूरत है। जबकि रूस-चीन गठजोड़ अमेरिकाइजराइल और बाकी साम्राज्यवादी देशों के हस्तक्षेप को एशिया में रोकना या सीमित करना चाहता है। संक्षेप में एक और झटके का जिक्र जरूरी है। दिल्ली में सितंबर में जब जी20 सम्मेलन हुआ तो उसमें भारत-अरब-इजराइल-यूरोप कॉरिडोर को लेकर एक समझौता हुआ। इसमें भारत और सऊदी अरब मुख्य भागीदार थे। इस कॉरिडोर के जरिए सड़क और रेल मार्ग भारत से यूरोप तक जाना था। जिसमें बीच में सऊदी अरब और इजराइल की भी भूमिका थी। यह पूरा मामला भारत के उद्योग जगत से लेकर सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस के निवेश और इजराइल के सामरिक महत्व से जुड़ा था। लेकिन यह डील अब ठंडे बस्ते में चली गई है। यह भारत के लिए झटका है।

 

(यूसुफ किरमानी वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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